राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रारम्भिक प्रचारकों में एक बाबा साहेब आप्टे।
उमाकान्त केशव आपटे उपाख्य बाबा साहेब आपटे (28 अगस्त सन् 1903 - 26 जुलाई 1972) राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रथम प्रचारक एवं उसके अखिल भारतीय प्रचारक-प्रमुख थे। वह एक मौलिक चिन्तक एवं विचारक थे। वे संस्कृत, मराठी, हिंदी एवं इतिहास के विद्वान्, भारतीय-संस्कृति के मनीषी, भारतीय जीवन-मूल्यों, आदर्शों एवं सांस्कृतिक विशिष्टताओं के वह जीवन्त प्रतीक थे। वे भारत के गौरवशाली इतिहास के प्रसार हेतु निरंतर प्रयत्नशील रहे।
जीवन परिचय:-
श्री उमाकान्त केशव आपटे का जन्म महाराष्ट्र के यवतमाल में हुआ था। बचपन से ही उनमें असीम देशभक्ति भरी हुई थी, परंतु शरीर कुछ दुर्बल था। वाचन में उनका विशेष रुचि थी। धर्म और संस्कृति तथा देश का गौरवशाली अतीत उनके अध्ययन तथा चिंतन के प्रमुख विषय थे। १९२० में दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे धामणगांव (जिला वर्धा) में एक विद्यालय में अध्यापक बने। वे छात्रों को विद्यालयीन पढ़ाई के साथ-साथ गौरवशाली इतिहास, देशभक्तों के प्रेरक चरित्र, स्वातंत्र योद्धाओं का तेजस्वी बलिदान आदि की कथाएं भी सुनाते थे। परिणामस्वरूप बाबासाहब विद्यार्थियों में प्रिय परंतु विद्यालय के संचालकों में अप्रिय हुए। एक बार उन्होंने विद्यालय में लोकमान्य तिलक की स्मृति में एक कार्यक्रम किया। उसके लिए व्यवस्थापकों ने उनसे घोर नाराजगी जताई। श्री आपटे ने तत्काल नौकरी से त्यागपत्र दे दिया।
सितम्बर, 1924 ई. में वह नागपुर आ गए और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक बने। 1927 ई. में वह प्रथम संघशिक्षा वर्ग में बौद्धिक विभाग के प्रमुख रहे। [1]
सन् 1930 ई॰ में सत्याग्रह आन्दोलन में संघ-संस्थापक डा॰ केशवराव बळिराम हेडगेवार की अनुपस्थिति में उन्होने संघ-शाखाओं में सुचारू रूप से चलाने का दायित्व भली-भाँति पूरा किया। सन् 1931 में वह संघ के प्रथम प्रचारक होकर निकले। अगले दो वर्ष तक नागपुर और विदर्भ में प्रवास के बाद अन्य प्रांतों में भी जाने लगे। गाँव-गाँव पैदल घूमकर उन्होंने संघ-कार्य का विस्तार किया। इसी दौरान उद्यम मुद्रणालय, देव मुद्रणालय और आईडियल डेमोक्रेटिक कम्पनी के टाइपिस्ट रहे और ‘उद्यम’ (मासिक) में पत्र भी लिखने लगे। 1932 ई॰ में सभी नौकरियों से त्यागपत्र दे दिया और संघ के प्रति पूर्ण समर्पित हो गये।
सन 1937-१९40 ई॰ तक उन्होने सम्पूर्ण भारत में प्रवास किया। अगस्त, 1942 ई॰ में ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ के दौरान बिहार का दौरा किया। 33 श्लोकों वाले ‘भारतभक्तिस्तोत्र’ की रचना की। चीन के क्रांतिकारी-इतिहास का गहन अध्ययन करके आधुनिक चीन के राष्ट्रपिता डा॰ सनयात सेन पर भी एक पुस्तक लिखी। 26 जुलाई 1972 ई. को उनका निधन हो गया। उनकी मृत्यु के बाद उन्हीं के नाम से बनी हुई बाबासाहब आपटे समिति ने इतिहास पुनर्लेखन का व्यापक कार्य हाथ में लेकर बाबासाहब आपटे को सही अर्थों में श्रद्धांजलि अर्पित की है।
वे वेद, पुराणों, रामायण, महाभारत आदि भारतीय-इतिहास के गम्भीर अध्येता थे। उनकी मान्यता थी कि जबतक हम अपने स्वत्व को नहीं समझेंगे, तबतक इतिहास-बोध और राष्ट्र-बोध से वंचित रहेंगे। उनकी यह भी धारणा थी कि जबतक विदेशियों द्वारा विकृत इतिहास का समूलोच्छेद करके सही इतिहास का लेखन प्रारम्भ नहीं होता, तबतक राष्ट्रीय अस्मिता को सदा ख़तरा बना रहेगा। इसलिए उनकी तीव्र अभिलाषा थी कि आदिकाल से लेकर वर्तमान तक का देश का सच्चा इतिहास लिखा जाए जिससे भारत की गौरवशाली परम्परा और जीवन का वास्तविक परिचय हो सके और विलुप्त सही तथ्य खोजे जाएँ। अतएव उन्होने संघ-कार्य के लिए देश के अपने लगभग 42-वर्षीय सतत और विस्तृत प्रवास में विदेशियों द्वारा विकृत किए गए भारतीय-इतिहास को शुद्धकर उसका पुनर्लेखन करने के लिए इतिहास के अनेक विद्वानों को प्रेरित किया। इसके अतिरिक्त वह संस्कृत के पण्डितों से भी सम्पर्क करके उनसे विचार-विमर्शकर निवेदन करते थे कि संस्कृत को आमजन की बोलचाल की भाषा बनाने के लिए व्याकरण पर अधिक बल न देते हुए संस्कृत सिखाने के लिए एक नयी और सरल पद्धति का निर्माण करना चाहिये।
बाबा साहेब आपटे ने अनेक पुस्तकों की रचना की, जिसमें प्रमुख हैं-
1. अपनी प्रार्थना (1973)
2. महाराष्ट्राचा स्मृतिकार (मराठी, 1997)
3. 'आमच्या राष्ट्रजीवनाची परंपरा : दशावतार कथेंतील राष्ट्रीयत्वाच्या परंपरेचा सुसूत्र इतिहास’ (मराठी में ; हिंदी में ‘हमारे राष्ट्रजीवन की परम्परा)
4. परमपूजनीय डाक्टर हेडगेवार : संक्षिप्त चरित्र व विचारदर्शन
5. डॉ॰ हेडगेवार
6. पंजाबकेसरी दे.भ. लाला लाजपतराय
एक नज़र और डालें
बात एक अगस्त, 1920 की है। लोकमान्य तिलक के देहान्त के कारण पूरा देश शोक में डूबा था। संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार जी किसी कार्य से घर से निकले। उन्होंने देखा कुछ लड़के सड़क पर गेंद खेल रहे हैं। डॉ. जी क्रोध में उबल पड़े – तिलक जी जैसे महान नेता का देहान्त हो गया और तुम्हें खेल सूझ रहा है। सब बच्चे सहम गये। इन्हीं में एक थे गोविन्द सीताराम परमार्थ, जो आगे चलकर दादाराव परमार्थ के नाम से प्रसिद्ध हुए।
दादाराव का जन्म नागपुर के इतवारी मोहल्ले में 1904 में हुआ था। उनके पिता डाक विभाग में काम करते थे। दादाराव को मां के प्यार के बदले सौतेली मां की उपेक्षा ही अधिक मिली क्योंकि जब दादाराव की आयु केवल चार वर्ष थी । उनकी मां का देहान्त हो गया जिसके कारण उनके पिताजी ने दूसरा विवाह कर लिया। था मैट्रिक में पढ़ते समय इनका सम्पर्क क्रान्तिकारियों से हो गया। साइमन कमीशन के विरुद्ध आन्दोलन के समय पुलिस इन्हें पकड़ने आयी, पर ये फरार हो गये। पिताजी ने इन्हें परीक्षा देने के लिए पंजाब भेजा, उन्होने परीक्षा में उत्तर पुस्तिका को अंग्रेजों की आलोचना से भर दी। ऐसे में परिणाम क्या होना था, यह स्पष्ट है।
दादाराव का सम्बन्ध भगतसिंह तथा राजगुरू से भी था।भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरू की फांसी के बाद हुई तोड़फोड़ में पुलिस इन्हें पकड़कर ले गयी थी। जब इनका सम्बन्ध डॉ. हेडगेवार जी से प्रगाढ़ हुआ, तो #दादाराव संघ के लिए पूरी तरह समर्पित हो गये। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रारम्भ में डॉ. हेडगेवार जी के साथ काम करने वालों में बाबासाहब आप्टे तथा दादाराव परमार्थ प्रमुख थे। वर्ष 1930 में जब डॉ. साहब ने जंगल सत्याग्रह में भाग लिया, तो दादाराव भी उनके साथ गये तथा अकोला जेल में रहे।
दादाराव बहुत उग्र स्वभाव के थे. पर उनके भाषण बहुत प्रभावी होते थे। उनकी अंग्रेजी बहुत अच्छी थी. भाषण देते समय वे थोड़ी देर में ही उत्तेजित हो जाते थे और अंग्रेजी बोलने लगते थे। दादाराव को संघ की शाखाएं प्रारम्भ करने हेतु मद्रास, केरल, पंजाब आदि कई स्थानों पर भेजा गया। डॉ. हेडगेवार जी के प्रति उनके मन में अटूट श्रद्धा थी। कानपुर में एक बार शाखा पर डॉ. जी के जीवन के बारे में उनका भाषण था, इसके बाद उन्हें अगले स्थान पर जाने के लिए रेल पकड़नी थी. पर, वे बोलते हुए इतने तल्लीन हो गये कि समय का ध्यान ही नहीं रहा, परिणामस्वरूप रेल छूट गयी।
वर्ष 1963 में बरेली के संघ शिक्षा वर्ग के रात्रि कार्यक्रम में डॉ.हेडगेवार जी के बारे में दादाराव को बोलना था। कार्यक्रम का समय सीमित था. अतः वे एक घण्टे बाद बैठ गये, पर उन्हें रात भर नींद नहीं आयी। रज्जू भैया उस समय प्रान्त प्रचारक थे। दो बजे उनकी नींद खुली, तो देखा दादाराव टहल रहे हैं. पूछने पर वे बोले – तुमने डॉ. जी की याद दिला दी। ऐसा लगता है मानो बांध टूट गया है और अब वह थमने का नाम नहीं ले रहा। फिर कभी मुझे रात में इस बारे में बोलने को मत कहना।
दादाराव अनुशासन के बारे में बहुत कठोर थे. स्वयं को कितना भी कष्ट हो, पर निर्धारित काम होना ही चाहिए। वे प्रचारकों को भी कभी-कभी दण्ड दे देते थे, पर अन्तर्मन से वे बहुत कोमल थे। वर्ष 1963 में सोनीपत #संघ_शिक्षा_वर्ग से लौटकर वे दिल्ली कार्यालय पर आये. वहीं उन्हें बहुत तेज बुखार हो गया। उनका उपचार किया गया किन्तु 27 जून, 1963 को उन्होंने अपना शरीर छोड़ दिया।
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