परिवार से जुड़ा है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्य जानें : संघ कार्य पद्दति का विकास |
यह
पारिवारिक-भाव संघ- पद्धति के सभी विविध पहलुओं में व्यक्त होता है। जो स्वयंसेवक
संघ के विभिन्न शिक्षण-शिविरों और सम्मेलनों में भाग लेते हैं, वे कितने
ही निर्धन क्यों न हों, सभी व्यय अपने ही पास से करते हैं। वे शिविर-शुल्क देते हैं, अपना
गणवेश मोल लेते हैं, अपने आने-जाने का किराया देते हैं । वह यह सब प्रत्येक कार्य में
स्वावलंबन एवं स्वार्थत्याग की भावना से स्फूर्त होकर करते हैं ।
गुरुदक्षिणा
की प्राचीन परंपरा भी, जिसका संघ अनुसरण करता है, इसी भावना से युक्त है।
वर्ष में एक बार गुरु पूर्णिमा के शुभ पर्व पर प्रत्येक स्वयंसेवक
पवित्र गुरु भगवाध्वज का पूजन करता है और अपनी दक्षिणा समर्पित करता है ।
धन-संग्रह की प्रथा अथवा मासिक और वार्षिक चंदे के लिए संघ में कोई स्थान नहीं है।
दक्षिणा - अर्पण पूजन के भाव से किया जाता है। स्वयंसेवक अपने नाम व दक्षिणा को
जनता में प्रकाशित भी नहीं करना चाहता । स्वयंसेवक वास्तव में इसे त्याग नहीं
समझता, वरन् इसे एक ऐसा स्वाभाविक कर्तव्य मानता है, जिसमें किसी
चीज की, नाम की अथवा ख्याति की आशा करने का उसका अधिकार नहीं है। उन्हें
तुकाराम के इस वचन की भावना के अनुसार प्रशिक्षित किया जाता है- 'आता
उरलों उपकारा पुरता' (अब मेरा अस्तित्व केवल दूसरों की सेवा के लिए है।) ऐसे ही एक
उत्स्फूर्त कवि के शब्द -
'तेरा वैभव अमर रहे माँ,
हम दिन
चार रहें न रहें'-
सदैव
स्वयंसेवक की आत्मा को उत्साहित करते रहते हैं ।
किंतु
दुर्भाग्य से आज अपने देश का सामान्य वातावरण एक आश्चर्यजनक विपरीतता उपस्थित कर
रहा है। अपने त्याग की हुंडियाँ भुनाने का तथा अपनी सेवाओं के प्रतिदानस्वरूप कुछ
माँगने की भावना का सभी जगह जोर है । ईश्वर की पूजा में भी नाम और यश की लालसा
दिखाई देती है। हम मंदिरों में दान-दाताओं के नामांकित पत्थरों और पट्टिकाओं को
देखते हैं। एक बार मेरी यात्रा में एक स्वामी जी मेरे साथ थे। उनके पात्र पर मैंने
नाम खुदा हुआ देखा । नाम न तो उनका था और न उस आश्रम का ही था, जहाँ के
वह थे । जब मैंने इसका कारण पूछा तो स्वामी जी ने कहा- 'यह उस
व्यक्ति का नाम है, जिसने बहुत बड़ी संख्या में इस प्रकार के पात्र आश्रम को भेंट किए थे' । क्या
हम इसको दान कह सकते हैं? कुछ प्रतिदान, जो नाम प्राप्त करने के उद्देश्य से किया हुआ हो, दान नहीं, वरन्
सौदा होता है। संघ में इस प्रकार का लाभपरायण भाव कभी विकसित नहीं होने दिया जाता
। हम वास्तविक भक्ति से की गई दक्षिणा को वैसे ही उदात्ततम एवं उच्चतम मानते हैं, जैसे
गुरुनानकदेव ने असीम संपत्तिवान व्यक्तियों द्वारा दिए भोजन की अपेक्षा निर्धन व
मेहनती परिवार के भोजन को स्वीकार किया था ।
source of information जानकारी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पुस्तक संघ कार्य पद्दति का विकास
Post a Comment