युगद्रष्टा डॉ हेडगेवार जी प्रेरणादायक कहानी

हे युगदृष्टा हे महायती पदवन्दन ।हे केशव तुमको कोटि कोटि अभिवादन।

21 जून प.पू. डॉ हेडगेवार जी की पुण्यतिथि दिनांक अनुसार है । इस अवसर पर उनका पुण्य  स्मरण करते हुए मध्यक्षेत्र के सह क्षेत्र कार्यवाह श्री हेमंत जी मुक्तिबोध का लेख प्रस्तुत है .

केशव-दृष्टि से अनुप्राणित केशव-सृष्टि

तन-मन-धन पूर्वक संघकार्य करने के लिये दृढ-निश्चय और अखंड सावधानी के साथ जाग्रत रहने की आवश्यकता है। रोज रात में सोने से पूर्व यह विचार करते रहें कि आज मैंने अपने देश के लिये क्या किया । यह ध्यान रहे कि संघस्थान पर नियमित रूप से प्रतिदिन उपस्थित रहने से ही हमने संघकार्य कर लिया, ऐसा नहीं है। हमें आसेतु हिमाचल फैले इस विशाल हिन्दू समाज को संगठित करना है ।

    संघ के बाहर का हिंदू समाज ही हमारा वास्तविक महत्वपूर्ण कार्यक्षेत्र है। संघ की स्थापना सिर्फ संघ में आने वाले स्वयंसेवकों के लिये नहीं की गई है। जो लोग संघ से बाहर हैं, संघ उनके लिये भी है। लोगों को राष्ट्रोन्नति का मार्ग समझाना हमारा कर्तव्य है और मेरे मतानुसार वह मार्ग केवल संगठन ही है। हिंदू जाति का अंतिम कल्याण केवल संगठन के मार्ग से ही हो सकता है यह ध्यान रहे। 

    परम पूजनीय डॉक्टर हेडगेवार के अंतिम बौद्धिक के यह वाक्य हैं। यह रेखांकित करते हुए कि देश की उन्नति का एकमेव अमृतपथ केवल संगठन ही है, डॉक्टर जी ने इस पथ पर बढने के लिये कुछ सूत्र दिये। वे सूत्र हैं,  दृढ निश्चय, अखण्ड  सावधानी, जागरूकता और तन-मन-धन पूर्वक अर्थात अपना सर्वस्व लगा कर निरंतर सक्रियता। संघ के स्वयंसेवकों ने डॉक्टरजी के ऐसे अनेक विचारसूत्रों को अपना कर उनके शाश्वत तत्वों को आत्मसात करते हुए तथा बदलते समय की आवश्यकताओं के अनुरूप उनका कालसुसंगत भाष्य करते हुए ध्येय-समर्पित जीवन के उदाहरण प्रस्तुत किये हैं। लगभग एक शताब्दी पूरी करने जा रही संघ की इस अविश्रांत यात्रा का पथ इन सूत्रों के आधार पर जीवन जीते हुए हजारों निष्कंप जीवनदीपों ने आलोकित किया है। आज हम पूज्य डॉक्टरजी के इन्हीं विचारसूत्रों  पर कुछ विचार करेंगे।

    डॉ हेडगेवार : घनीभूत प्रेम की साकार अभिव्यक्ति 

    डॉक्टरजी  के साथ जिन्होंने काम किया था वे कहते थे कि डॉक्टर जी  घनीभूत प्रेम की साकार अभिव्यक्ति थे। वे स्वयं को संघ की दाई कहते थे लेकिन दरअसल वे संघ की माँ ही थे। जननी और माँ में अंतर होता है। जननी केवल अपने माध्यम से जन्में अंश की ही जननी होती है लेकिन माँ के प्रेम का दायरा केवल अपने अंश तक सीमित नहीं होता। उसके प्रेम की व्याप्ति और अभिव्यक्ति का फलक बहुत विस्तृत होता है। इस अर्थ में माँ होने के लिये जननी होना जरूरी नहीं होता, बल्कि मातृभाव होना आवश्यक होता है। डॉक्टर जी का हृदय एक माँ जैसा था जिसमें सारे हिंदू समाज के लिये निर्मल, निराकांक्ष और निस्सीम वात्सल्य के झरने फूटते थे। इसी प्रेम के कारण समाज की दुरावस्था से उन्हें पीडा होती थी। इस पीडा ने उनके मन में अनेक प्रश्नों को जन्म दिया और उनके उत्तर के रूप में संघ-गंगा प्रवहमान हुई। बीज रूप में प्रारंभ हुआ संघ अब एक विशाल वटवृक्षों का  संकुल  बन गया है। केशव दृष्टि अब केशव सृष्टि में बदल गयी है। आज नौ दशकों से अधिक की यात्रा के बाद भी इस सृष्टि की मूल प्रेरणा वही है, समाज के प्रति निराकांक्ष प्रेम। इसी प्रेम के कारण डॉक्टर  हेडगेवार बंगाल में दामोदर नदी के बाढपीडितों के लिये खाद्य पदार्थों की बोरी पीठ पर लाद कर  दौड पडे थे। वही प्रेम आज 2021 में कोविड पीडित समाज की सहायता के लिये स्वयंसेवकों को अपने प्राण भी दांव पर लगाने की प्रेरणा दे रहा है। इसी प्रेम ने डॉक्टर हेडगेवार को गंगासागर यात्रा में हैजा फैलने पर झुग्गी-झोपडियों में रहने वाले मरीजों को दवाइयाँ पहुँचाने के लिये प्रेरित किया था। हिंदू समाज के प्रति यही प्रेम आज असंख्य सेवा बस्तियों में चिकित्सा केन्द्र चलाने के लिये स्वयंसेवकों को प्रेरित कर रहा है। इसी प्रेम ने कलकत्ता मुस्लिम हमलावरों से त्रस्त हिंदुओं की रक्षा के लिये उन्हें सेवापथक बनाने के लिये प्रवृत्त किया था। वही प्रेम आज ग्राम नगरों में समाज की धर्मरक्षा, ग्राम रक्षा समितियों का गठन कर ‘परित्राणाय साधुनाम’ को सार्थक कर रहा है। घनीभूत प्रेरणा का यह बीज डॉक्टर हेडगेवार की पीडा में से 1925 में प्रस्फुटित हुआ और अब यह ऐसी वृक्षश्रृंखला में बदल चुका है जिसमें से उत्पन्न हो रहे लाखों बीज भविष्य में असंख्य वृक्ष-श्रृंखलाओं के विकास की आश्वस्ति दे रहे हैं। इस आश्वस्ति के मूल में है बीज के वृक्ष बनने और नयी पूर्णता प्राप्त करने के लिये वृक्ष के पुनः बीज बनने की आकांक्षा। इस आकांक्षा  के मूल में है हिंदू समाज को संगठित अवस्था प्राप्त करा देने की डॉक्टर जी  की महदाकांक्षा  और इस महदाकांक्षा के मूल में है समाज को संगठित अवस्था प्राप्त करा देने का तंत्र विकसित करने का उनका संकल्प जो हिंदू समाज की दुरावस्था के कारणों की उनकी खोज का निष्कर्ष था। संगठित हिंदू समाज ही सारी समस्याओं का अंतिम समाधान है और समाज को संगठित  करने के लिये विशिष्ट गुण समुच्चय से युक्त व्यक्तियों का निर्माण ही एकमात्र विकल्प है, इस निश्चय के साथ संघ का निर्माण और उसकी विकास यात्रा प्रारंभ हुई। इस एकमेव मार्ग पर बढने के पाथेय स्वरूप डॉक्टर जी ने समय-समय पर सूत्र रूप में कई बातें कही हैं। 

    तन-मन-धन पूर्वक कार्य करने का आव्हान 

    उन्होंने आग्रहपूर्वक कहा कि हमें तन-मन-धन पूर्वक संघ कार्य करना चाहिये। संघ की प्रार्थना में जो ‘पतत्वेष कायो’ की बात कही गई है वह बडी गहरी और अर्थगर्भित है। यहाँ काया से तात्पर्य केवल भौतिक शरीर के गुणावगुणों और समर्पण से नहीं है। शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा के संपूर्ण समर्पण से उसका तात्पर्य है। स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने लिखा है ‘जे जे उत्तम उदात्त उन्नत महन्मधुर ते ते, याने हमारे पास जो कुछ भी श्रेष्ठ है वह सब इस देश के लिये समर्पित है। डॅाक्टर हेडगेवार ने अपने स्वयं के उदाहरण से इसे सिद्ध किया जिससे प्रेरणा लेकर हजारों स्वयंसेवकों ने निज जीवन की लालसाओं को दरकिनार करते हुए ध्येय-समर्पित जीवन के प्रतिमान रचे हैं। संघ कार्य कोई फुरसत में करने का कार्य नहीं है। इसमें समय का बंधन नहीं है। इसमें समर्पण की सीमा नहीं है। यही बात केन्द्र में रख कर पीढी दर पीढी स्वयंसेवक अपने निजी जीवन की रचना कर रहे हैं। परिवार के सुचारू संचालन के लिये आवश्यक आर्थिक व्यवस्था उन्हें कुछ इस तरह बनाना होती है कि वे  संघकार्य के लिये समय निकाल सकें।  डॉक्टर जी  ने बचा-खुचा समय नहीं बल्कि समय निकाल कर संघ कार्य करने का विचार दिया है। मध्यक्षेत्र के पूर्व क्षेत्र प्रचारक स्वर्गीय भाउसाहब भुस्कुटे गृहस्थ थे। पारिवारिक जीवन के साथ पूर्ण न्याय करते हुए उन्होंने एक आदर्श  स्वयंसेवक व प्रचारक का जीवन जिया। अपनी पैतृक संपत्ति, खेतीबाडी और जमीन जायदाद का संघकार्य के अनुकूल प्रबंधन कैसे किया जा सकता है इसके वे श्रेष्ठ उदाहरण थे। डॉक्टर जी युवकों से कहते थे कि आपको दूसरे प्रांतों में जाने का अवसर छोडना नहीं चाहिये। इससे आप वहाँ  अपनी शिक्षा  भी पूरी कर सकेंगे और संघकार्य भी कर सकेंगे। वे कहते थे कि पढना भी संघ का कार्य है क्योंकि आपको संघकार्य के लिये पढना है। आपको यह सोचना है कि मैं जितना ज्यादा पढ जाऊंगा उतना ज्यादा संघ कार्य कर सकूंगा।’’ इसी का परिणाम है कि आज अनगिनत स्वयंसेवक बडे बडे पैकेज छोडकर ऐसी नौकरियों और व्यवसायों में जा रहे हैं जिससे वे समाज-कार्य के लिये समय निकाल सकें। कहा गया है कि ‘त्यागेन एकेन अमृतत्वमानषुः’’ अर्थात जिन्होंने निजी हित-लाभ को ठोकर मार कर मानव कल्याण के लिये निरंतर परिश्रम में ही अपने जीवन की सार्थकता समझी वे ही समाज को आगे बढा सके। तन-मन-धन पूर्वक स्वयं को झोंक देने का डॉक्टर जी का विचार लाखों युवकों का जीवन-सूत्र बन गया है। 

    दृढ निश्चय  और अखण्ड सावधान रहने की जरूरत

    तन-मन-धन पूर्वक काम करना कोई आसान बात नहीं । पूजनीय डॉक्टर हेडगेवार कहते थे कि इसके लिये दृढ निश्चय  और अखण्ंड सावधान रहने की जरूरत है। समर्थ रामदास ने छत्रपति शिवाजी  के बारे में कहा है ‘निश्चयाचा महामेरू बहुत जनांसि आधारू’। पर्वत की तरह अडिग व्यक्ति ही अनेक लोगों के लिये आधार-स्वरूप होता है।  साधना के मार्ग में अनेक प्रलोभन, बाधायें, आपत्तियाँ और विपत्तियाँआती हैं। ऐसे में साधक का दृढ निश्चय ही उसे विचलित होने से बचाता है। स्वयंसेवकों ने अपने दृढ निश्चय से ही अनेक विस्मयकारी काम कर दिखाये हैं। आखिरकार संघस्थापना के समय भी कोई अनुकूल परिस्थितियाँ तो थीं नहीं। न शासन अनुकूल था और न वह समाज ही अनुकूल था जिसके उन्नयन के लिये काम शुरू किया गया था। ऐसे में एक आवाज उठी कि ‘हाँ, मैं डॉक्टर केशव हेडगेवार कहता हॅूं कि भारत हिन्दू राष्ट्र था, हिन्दू राष्ट्र है और इस धरती पर जब तक हिन्दू रक्त का एक भी व्यक्ति जीवित रहेगा तब तक यह हिन्दू राष्ट्र ही रहेगा। ’’ उस आवाज की अनुगूंज ने सामाजिक जीवन में राष्ट्रीयता का एक ऐसा स्वर जाग्रत किया कि आज करोडों लोग इसमें अपना स्वर मिला रहे हैं। गांधी हत्या के झूठे आरोप हों, विभाजन की विभीषिका हो, आपातकाल के प्रतिबंध हों या फिर वर्तमान समय में संघ के खिलाफ विषैले विमर्श  स्थापित करने की साजिशें हों, स्वयंसेवकों ने अपने दृढ निश्चय से ही उन्हें मात दी है। महाकवि गेटे ने लिखा है ‘जिसकी इच्छाशक्ति अटल और अटूट है वह विश्व को अपनी इच्छा के साँचे  में ढाल लेता है’। आज भारत में यही होता हुआ हम देख रहे हैं। 

    डॉक्टर हेडगेवार ने दृढ निश्चय के साथ साथ अखण्ड सावधान रहने का भी संदेश दिया है। व्यक्ति हों, संगठन हों, समाज हो या देश हो, यदि उन्हें अपने अस्तित्व और अस्मिता की रक्षा करना है तो अखण्ड सावधानी या निरंतर जागरूकता उसकी अनिवार्य शर्त है। मनुष्य में अच्छी और बुरी दोनों प्रकार की प्रवृत्तियाँ विद्यमान रहती है। हमारे शत्रु और मित्र दृश्यमान भी होते हैं और अदृश्य  भी। अदृश्य शत्रु ज्यादा घातक होते हैं। डॉक्टर  जी ने कहा है कि अहंकार और मोह ऐसे ही शत्रु हैं। जिन्हें संगठन करना है उन्हें इन दोनों से सावधान रहना आवश्यक है। निरहंकारिता और निर्मोहत्व वे महान गुण हैं जो अंतःकरण की सारी शुद्ध भावनाओं को जागृत रख कर और सारी क्षुद्र भावनाओं को दूर रख कर आजीवन कार्य करने की प्रेरणा देते हैं। अखण्ड सावधानी से अभिप्रेत है संदेहमुक्त मन, संशयमुक्त ज्ञान, निर्हेतुक कर्म तथा तत्व और व्यवहार में समानता। अखण्ड सावधान रहे बगैर न आंतरिक  शत्रुओं से बचा जा सकता है और न बाहरी। अपने यहाँ कहा गया हैः

    नःमण्वेकामिमां वार्ता सदाभव स्वयंमाणं नरं नूनं ह्याक्रमन्ति विपक्षिवः’’

    अर्थात ‘‘इस शिक्षा  को ध्यान से सुनो। सदा सावधान रहना चाहिये। असावधान मनुष्य पर ही प्रायः शत्रु आक्रमण करते हैं‘‘। यह हमारा दुर्भाग्य है कि हमने इस गुण का मूल्य भुला दिया। विदेशी विधर्मी हमलों और आत्मविस्मृति के वायरस की वजह से भारतीय मन दीर्घकाल तक मूर्च्छा की अवस्था में रहा है। समाज एक जागृत तन्द्रा से भी ग्रस्त रहा। सामाजिक जीवन में व्याप्त लापरवाही, उदासीनता, आलस्य और प्रमाद उसी के लक्षण हैं। ऐसा नहीं कि पिछले एक हजार वर्षों  में हम कभी जाग्रत नहीं रहे। लेकिन समस्या यह है कि हमारा जोश  रातोंरात जागता है और तुरंत ठण्डा भी  हो जाता है। फलतः प्रचण्ड विरोध, प्रतिरोध, बहिष्कार या आंदोलन जैसी परिस्थितियों का निर्माण होता है, कुछ सफलता मिलती है और समाज फिर सो जाता है। इसीलिये पूजनीय डॉक्टर  जी ने केवल सावधानी की ओर नहीं अपितु  अखण्ड सावधान और सतत जाग्रत रहने की ओर इंगित किया है।     

    ‘संघ के बाहर के लोगों के लिये भी संघ है’

    इस आलेख हेतु विचारणीय सूत्र में डॉक्टर जी ने हमें चेताया है कि केवल रोज शाखा में जाने और वहाँ  संघकार्य को भली प्रकार करने में ही अपनी इतिकर्तव्यता मानना अपेक्षित नहीं। वे स्मरण कराते हैं कि हमें आसेतु हिमाचल हिंदू समाज का संगठन करना है और इसलिये स्वयंसेवक के लिये वास्तविक महत्व का कार्यक्षेत्र संघ के बाहर का हिन्दू समाज है। कार्यकर्ता निर्माण के साधना-केन्द्र के रूप में शाखा की महत्ता निर्विवाद है लेकिन यह विचार भी महत्वपूर्ण है कि ‘’संघ याने शाखा है,  पर केवल शाखा याने संघ नहीं है’। एक राष्ट्रपुरूष के रूप में सारा भारतवर्ष, एक समाजपुरूष के रूप में सारा हिन्दू समाज और एक भौगोलिक ईकाई के रूप में जहाँ-जहाँ भी हिन्दू बसते हैं वह सारा भोगौलिक क्षेत्र संघ का कार्यक्षेत्र है। संघ का काम संघ के लिये नहीं, देश के लिये है। देश  का काम किसी एक संगठन को नहीं बल्कि सारे देश  को करना पडता है। समाज का सर्वांगीण विकास समाज की सहभागिता से ही हो सकता है। इसके लिये उसे आत्मबल, आत्मविश्वास और आत्मबोध से अनुप्राणित करना होता है। बीज रूप में व्यक्त डॉक्टर जी के यही विचार ‘केशव सृष्टि‘ के विश्वव्यापी विस्तार में साकार हुए हैं। शाखा में निर्मित ऊर्जा समाज की धमनियों में चेतना बनकर प्रवाहित हुई है। यह चेतना जहाँ  एक ओर स्वयंसेवकों द्वारा संचालित विविध संगठनों और गतिविधियों के रूप में पुष्पित हुईं,  वहीं वह समाज के धार्मिक,सामाजिक, शैक्षिक व सांस्कृतिक संगठनों, सज्जनशक्ति और सात्विक समूहों के जरिये हमारे लोकशक्ति केन्द्रों को भी राष्ट्रीयता के भाव से अनुप्राणित करने में सफल हुई हैं। 

    समाज जागरण का अर्थ है उसकी लोकशक्ति का जागरण । अपने अस्तित्व और अस्मिता के लिये समाज जिन अंगों का परिपोषण करता है वे भौतिक रूप में भी होते हैं और भाव रूप में भी । लोकशक्ति के इन केन्द्रों को जाग्रत बनाये रखने के लिये लोक-प्रबोधन, लोक-संस्कार, लोक-जागरण और लोकरंजन की आवश्यकता होती है। इसलिये पहली शर्त यह है कि इन केन्द्रों की पहचान की जाये। हमारी लोकशक्ति का एक केन्द्र है शिक्षा  और ज्ञान का क्षेत्र। भारत अपनी ज्ञान-परंपरा के कारण ही विशिष्ट रहा है। प्राचीन काल से भारत में ज्ञान साधना करते हुए ईश्वरीय आकांक्षा की पूर्ति के लिये लोकहितकारी सिद्धांतों  का प्रतिपादन करने वाली एक ऋषि-सत्ता प्रभावशील रही । यह ऋषि-सत्ता  लोकसंस्कार के जरिये लोकशक्ति का निर्माण, नियमन और प्रतिनिधित्व करती थी। दुर्भाग्यवश मैकाले की शिक्षा पद्धति के बायप्रोडक्टस और मार्क्सवाद की वर्णसंकर संतानों ने शिक्षा और ज्ञान के क्षेत्र को एक अभारतीय और खण्डित विमर्श से भर दिया है। इन साजिशों के बावजूद सौभाग्य से भारतीय ज्ञान परंपरा को सुरक्षित रखने और उसका कालानुरूप भाष्य करने वाले कई धार्मिक, शैक्षिक और सांस्कृतिक केन्द्र बचे रहे हैं और तमाम झंझावातों के बीच भी परंपरागत भारतीय विमर्श  को उन्होंने जीवित रखा हुआ है। संघ की विकासयात्रा में निरंतर लोकोन्मुखी होते जा रहे स्वयंसेवकों ने न सिर्फ अपने शिक्षा केन्द्र स्थापित किये हैं बल्कि इस क्षेत्र में सक्रिय संस्थाओं, संस्थानों, विद्वानों, बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को जुटा कर और जोड कर पुनः एक ऐसा भारतीय विमर्श  खडा कर दिया है जिसने मार्क्स  और मैकालेपुत्रों  के फरेबी विमर्श  की धज्जियाँ उडा दी हैं। इस तथ्य को भी नकारा नहीं जा सकता कि देश के राजनैतिक नेतृत्व में हुए परिवर्तन के कारण इस भारतीय विमर्श को भी एक शक्ति प्राप्त हुई है। परिणामस्वरूप इस फरेबी गिरोह के कवच-कुण्डल छिन गए हैं। इनका सत्ता-कवच टूट गया है। सांस्कृतिक, शैक्षणिक, प्रशाससनिक, राजनीतिक और मीडिया संस्थानों की कुर्सियों के कुण्डल भी छिन चुके हैं। वैचारिक व्यभिचार से उत्पन्न इन दासीपुत्रों के रथ इन्हीं के मचाये कीचड में धंस चुके हैं। भारत का विचारशील समाज धर्मनिरपेक्षता और सहिष्णुता के इनके भयभीत तर्कों को अब उनकी ढाल बनने देने को तैयार नहीं है। ‘संघ के बाहर के लोगों के लिये भी संघ है’,  डॉक्टर  जी के इस विचारसूत्र का यह भी एक फलितार्थ है। 

    लोकशक्ति का संबंध लोकहित से भी है और लोक अस्मिता से भी। देश की विकास यात्रा में विकास बनाम विनाश जैसे कई संवेदनशील मुद्दे उठते हैं। वनवासी जीवन, पर्यावरण, जल-जंगल-जमीन, ग्राम विकास और रोजगार जैसे मुद्दे व्यापक जनहित से जुडे मुद्दे हैं। कुछ लोगों के स्वार्थ जब व्यापक सामाजिक हित के खिलाफ जाते हैं तो असंतोष और अशांति पैदा होती है जो इस लोकशक्ति को दुर्बल भी बनाती है और भ्रान्त भी।  स्वयंसेवक जब समाजोन्मुख होकर सक्रिय हुए तो उन्होंने इस दिशा में उल्लेखनीय कार्य किये हैं। मध्यप्रदेश में झाबुआ एक जनजाति बहुल जिला है जिसे मिशनरियों ने एक अलग धर्म प्रांत की मान्यता दे रखी है। इस जिले में मुख्यधारा से कटा हुआ जनजाति समाज आजीविका के लिये लूटपाट ही किया करता था। स्वयंसेवकों की पहल, सेवा भारती के एकल विद्यालय तथा जनजाति सशक्तिकरण की अन्य गतिविधियों और वनवासी कल्याण आश्रम 

    के छात्रावासों के कारण झाबुआ मुख्यधारा से जुडने लगा। वर्ष 2002 में झाबुआ हिन्दू संगम में ढाई लाख से अधिक जनजातीय समाज उपस्थित हुआ। मिशनरी से दुष्प्रभावित जिले में ग्राम ग्राम व घर घर में हनुमान जी के चित्र, पवित्र लॉकेट और भगवा ध्वज दिये गए। ऐतिहासिक हिंदू संगम के बाद अनुवर्ती सेवा गतिविधियाँऔर भी तेजी से चलीं। ‘शिवगंगा’ के रूप में जल संरक्षण अभियान ने मानों एक जन अभियान का ही रूप ले लिया। परिणामस्वरूप देश के अन्य जनजातीय क्षेत्रों के विपरीत झाबुआ आज भी मिशनरी और नक्सली आतंक से मुक्त है।

    मध्यप्रदेश के ही बैतूल जिला मुख्यालय से 5 किलोमीटर दूर सोनाघाटी की पहाडी है। रेल व सडक मार्ग बनाने के लिये यह घाटी दो बार काटी जा चुकी है। स्वयंसेवकों द्वारा संचालित भारत भारती शिक्षा समिति ने पहाडी को हराभरा करने के लिये 30 एकड भूमि चिन्हित की। इस पहल को गंगावतरण अभियान कहा गया। बारिश के पानी को बचाने के लिये 3500 खंतियाँ खोदने का निश्चय किया। जिले की सज्जनशक्ति, सरकारी विभाग, धार्मिक सामाजिक संगठन, शिक्षा  संस्थाओं और स्वयंसेवकों के सम्मिलित प्रयासों ने चमत्कार कर दिखाया है। लोगों ने अपने घर से गेती फावडे तगारियाँ ला कर स्वेच्छा से श्रमदान किया और सोनाघाटी की पहाडी न सिर्फ हरीभरी होने लगी है बल्कि वर्षा जल के संरक्षण के कारण भूजल स्तर में भी वृद्धि हो रही है। संघ के बाहर के समाज के लिये भी संघ है, डॉक्टर जी के इस कथन का यही अर्थ है ‘भला हो जिसमें देश का वह काम सब किये चलो’।

    डॉक्टर जी ने कहा कि लोगों को राष्ट्रोन्न्ति का मार्ग समझाना हमारा कर्तव्य है और वह मार्ग केवल संगठन का ही है। सदैव संगठित अवस्था में रहना ही हिन्दू जाति के कल्याण का मार्ग है। शक्तिसंपन्न, निर्भ्रांत, समरस, सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय एक-मन हो कर एक दिशा में बढने वाला समाज ही संगठित समाज कहलाता है।  इसके लिये समाज को एक नैतिक नेतृत्व की जरूरत होती है। यह नेतृत्व एकछत्र नहीं, विकेन्द्रित होना चाहिये जो विभिन्न स्तरों पर समाज को गतिमान रख सके। ऐसा नेतृत्व खडा करना ही संघ को अभिप्रेत है। इसीलिये संघ में लोकसंग्रह का बडा महत्व है। सामान्य व्यक्ति की दुष्प्रवृत्तियों का निवारण ही लोकसंग्रह है। जिसे लोकसंग्रह करना है उसे बलवान, विवेकवान, धैर्यवान, निरहंकारी, विनम्र, साहसी, सतर्क, मृदुल और अच्छा संप्रेषक और संवाद-सक्षम  होना चाहिये। ऐसे गुणसमुच्चय का निर्माण करने का केन्द्र है संघ की शाखा, इन गुणों से युक्त व्यक्ति और वृत्ति का नाम है स्वयंसेवक और ऐसे स्वयंसेवक से पूजनीय डॉक्टर जी ने अपेक्षा की है समाज को यह समझाने की कि संगठित समाज ही देश के अंतिम कल्याण का मार्ग है

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