विश्व हिंदू परिषद (VHP) संघ परिवार का एक महत्वपूर्ण सदस्य |
विश्व हिंदू परिषद (VHP) की स्थापना 29 अगस्त 1964 को श्री कृष्ण जन्माष्टमी के शुभ पर्व पर भारत की संत शक्ति के आशीर्वाद के साथ हुई थी।विहिप का उद्देश्य हिंदू समाज को संगठित करना, हिंदू धर्म की रक्षा करना, और समाज की सेवा करना है भारत के लाखों गांवों और कस्बों में विहिप को एक मजबूत, प्रभावी, स्थायी,और लगातार बढ़ते हुवे संगठन के रूप में देखा जा रहा है।दुनिया भर में हिंदू गतिविधियों में वृद्धि के साथ, एक मजबूत और आत्मविश्वासी हिंदू संगठन धीरे-धीरे आकार ले रहा है।
स्वास्थ्य शिक्षा, आत्मसशक्तिकरण,आदि के क्षेत्रो में 4277 से अधिक सेवा परियोजनाओं के माध्यम से विहिप हिंदू समाज की जड़ो को मजबूत कर रहा है।
विश्व हिन्दू परिषद् के बढते चरण
विहिप हिंदू समाज में व्याप्त अस्पृश्यता जैसी सामाजिक बुराइयों के उन्मूलन के निरंतर प्रयासों के माध्यम से, समाज को विमुक्त, और अंतर्निहित हिंदू एकता को पुनर्जाग्रत करने के लिए समाज का कायाकल्प कर रही है
विहिप अपने मूल मूल्यों, विश्वासों और पवित्र परंपराओं की रक्षा के लिए श्री रामजन्मभूमि, श्री अमरनाथ यात्रा, श्री रामसेतु, श्री गंगा रक्षा, गौ रक्षा, हिंदू मठ-मंदिर मुद्दा, ईसाई चर्च द्वारा हिंदुओं का धर्मांतरण, इस्लामी आतंकवाद, बांग्लादेशी मुस्लिम घुसपैठ ,जैसे मुद्दों को उठाकर हिंदू समाज की अदम्य शक्ति के रूप में स्वयं को स्थापित कर रही है.
विहिप का प्रभाव
- हिंदू धर्म के सभी संप्रदायों (धर्मों) के सभी धर्माचार्यों का एक मंच पर एकत्रीकरण ।
- हिंदू समाज की सेवा करने की प्रवृत्ति विकसित करने के साथ, सेवा परियोजनाओं की विस्तृत श्रृंखला की संस्थापना ।
- सामाजिक कुरीतियों के उन्मूलन में अथक प्रयासो के साथ अपार सफलता।
- समाज में हिंदू गौरव और एकता की बढ़ी हुवी अभिव्यक्ति।
- हाल के दिनों में अपने मूल हिंदू धर्म में लाखों लोगों की स्वैच्छिक घर वापसी या 'परावर्तन'।
विश्व हिन्दू परिषद् के बढते चरण
प्रारम्भ में राष्ट्रीय, प्रांतीय और स्थानीय स्तर पर हिन्दू सम्मेलन आयोजित किए गए। समर्पित और प्रशिक्षित कार्यकर्ताओं द्वारा जगह-जगह पर इकाइयाँ बनाई गईं। संगठन विस्तार के लिए जन-जागरणात्मक, आंदोलनात्मक और रचनात्मक तीन प्रकार के कार्य किए गए।
सम्मेलन पर्व
प्रथम विश्व हिन्दू सम्मेलन:- 22, 23 और 24 जनवरी, 1966 – प्रयागराज (उत्तर प्रदेश) गंगा, यमुना एवं सरस्वती के संगम पर। इसमें चारों पूज्य शंकराचार्यों सहित हिंदुओं के सभी संप्रदायों और पंथों के प्रमुख धर्माचार्यों ने भाग लिया। सम्मेलन में उन हिन्दुओं के लिए, जो अपना धर्म एवं समाज किन्हीं परिस्थितियों में त्याग चुके थे, एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव कि ‘‘आज यह बहुत ही आवश्यक हो गया है कि ऐसे जो भी व्यक्ति बिना किसी दबाव के स्वेच्छा से अपने पूर्वजों के धर्म में वापस आना चाहते हैं उन्हें आत्मसात् कर लिया जाए।’’ स्वीकार किया गया। इस प्रकार स्वधर्म में वापसी को पूज्य सन्तों द्वारा मान्यता मिली, इस सम्मेलन की यह महत्वपूर्ण उपलब्धि है।
विदेशस्थ हिन्दुओं के सम्बन्ध में पारित प्रस्ताव में कहा गया कि विदेश में रहने वाले हिन्दू धीरे-धीरे अपनी मातृभूमि और धर्म से कटते जा रहे हैं, वे अपने परम्परागत धार्मिक, सामाजिक संस्कारों से भी दूर होते जा रहे हैं अतः उनसे सम्पर्क बनाकर रखना और उनमें अपनी संस्कृति को सुदृढ़ करना आवश्यक है। सम्मेलन में कुल 11 प्रस्ताव पारित हुए, जिनमें मंदिरों का वैभव, गोरक्षा, संस्कृत का शिक्षण भी थे।
उडुप्पी सम्मेलन – कर्नाटक राज्य का प्रथम ऐतिहासिक हिंदू सम्मेलन 13-14 दिसंबर, 1969 को उडुप्पी में हुआ। इसमें सभी जगद्गुरुओं और धर्माचार्यों ने ‘हिन्दवः सोदरा सर्वे’ का उद्घोष कर संपूर्ण हिंदू जगत से छुआछूत को मिटाने का आह्वान किया। उन्होंने कहा कि हमारा उद्देश्य हिन्दू समाज को अखंड एकात्मता की भावना से संगठित रखना है, जिससे अस्पृश्यता जैसी प्रवृतियों और भावनाओं के कारण उसमें कोई विघटन न हो।
उल्लेखनीय है कि जहाँ हिंदुत्व का रथ सवर्ण-दलित के दलदल में धंस रहा था, वहाँ श्रीगुरु जी के प्रयत्नों से ‘न हिन्दू पतितो भवेत’ का जयकार पूज्य सन्तों ने किया।
जोरहाट सम्मेलन – असम के जोरहाट में 27, 28, 29 मार्च, 1970 को हुए सम्मेलन में पधारे वनवासी, गिरिवासी और नगरवासियों में हिंदुत्व के प्रति प्रेम और आस्था जाग्रत हुई। इसमें भारत के सभी प्रमुख तीर्थों और 45 नदियों का पवित्र जल जलकुंड में डाला गया। इससे यहां के लोगों में भारत की एकता का सन्देश प्रसारित करने में परिषद को बड़ी सफलता मिली। लोग इस कुंड का पवित्र जल अपने घर ले गये। सम्मलेन में अनेकों पूज्य सत्राधिकारी सन्तों एवं नगा रानी गाइडिन्ल्यू ने भाग लिया। सम्मेलन में सर्वसम्मति से घोषणा की गई कि ‘‘हिन्दू हिन्दू एक हों’’। श्रीगुरु जी ने कहा कि हम सब एक हैं। अतः अपने को हिन्दू कहलाने में गौरव का अनुभव करें और आगामी जनगणना में ट्राइबल जैसे तुक्ष शब्दों को त्यागकर स्वयं को हिन्दू लिखवाएं। इसी सम्मेलन के परिणामस्वरूप अरुणाचल, मणिपुर, त्रिपुरा, मेघालय में भी परिषद की इकाई गठित हुई।
सम्मेलनों की श्रृंखला
हिन्दू समाज में व्यापक जन जागरण, राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय समस्याओं के प्रति तथा सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध जागरूकता निर्माण करने के लिए राष्ट्र, प्रान्त एवं जिला स्तर पर हिन्दू सम्मेलन हुए। सम्मेलन विवरण-
पूर्वोत्तर भारत सम्मेलन: अक्टूबर, 1966 – गुवाहाटी। ईसाइयों की बढ़ती गतिविधियों पर चिंता प्रकट की गई, घोषणा हुई कि सभी हिंदू प्रकृति पूजक हैं, स्वार्थी तत्व हमारे समाज की एकता, देश की अखंडता और धर्म की व्यापकता को सहन नहीं कर पा रहे हैं, हमें ध्यान रखना होगा कि हम सब हिन्दू हैं और यह देश हिन्दू राष्ट्र है। 1980 का नौगाँव (असम)। 1980 से 1982 के बीच असम के अनेक जिलों, तहसीलों में कुल 27 सम्मेलन हुए। मणिपुर प्रान्त सम्मेलन- 1983 में इम्फाल, 1984 में थीबल व मोइरांग में सम्मेलन हुए। 2001 में त्रिपुरा।
बिहार – 1982 किशनगंज (बिहार) के सम्मेलन में घुसपैठियों के विरुद्ध समाज व सरकार का ध्यान आकृष्ट किया गया। बनमनखी (पूर्णिया)।
पश्चिम बंगाल – 1983 का मालदा।
अंडमान द्वीप समूह सम्मेलन – अप्रैल, 1983, पोर्ट ब्लेयर। 6,000 लोगों की सहभागिता, बड़ी संख्या में वनवासी उपस्थित।
जम्मू सम्मेलन – 1981। पश्चिमोत्तर राज्यों के 7,500 लोग उपस्थित रहे।
पंजाब – मार्च, 1983-अमृतसर। स्थानीय गुरुद्वारों ने अपने लंगर खोल दियेे, सिख और गैर-सिख में एकात्मता के दर्शन हुए।
राजस्थान – 1970 का हाड़ौती (राजस्थान), 2005 में ब्यावर (राजस्थान) सम्मेलन में पूर्व में मुस्लिम बने 1,900 लोग पुनः अपने पूर्वजों की परम्परा में वापस हुए।
महाराष्ट्र के सम्मेलन – पंढरपुर, दिसंबर, 1970, 1978 में मंगेश (गोवा), 1981 नरसोवाबाड़ी, 1987 आलन्दी, अक्टूबर, 1995-नागपुर, केन्द्र सरकार की मुस्लिम व ईसाई तुष्टीकरण की नीति पर प्रहार किये गए। 2003 में शम्भाजी नगर (औरंगाबाद), 2005 में पंढरपुर, 2006 में देवगिरि सम्मेलन।
गुजरात – अक्टूबर, 1972 सिद्धपुर। सम्मेलन में 15,000 प्रतिनिधि, विदेशस्थ हिंदुओं से हो रहे दुव्र्यवहार पर दुःख प्रकट किया गया।
आन्ध्र – तिरुपति सम्मेलन – 1974। पूज्य स्वामी चिन्मयानंद जी महाराज ने हिंदू वोट बैंक बनाने का आह्वान किया और कहा कि वे वोट की शक्ति को समझें। हैदराबाद में दिसंबर, 1988।
कर्नाटक – 2003 में बंगलौर एवं उडुपी में सम्मलेन हुए।
तमिलनाडु – 1982 का नागरकोइल। 2006 में इरोड सम्मेलन। इरोड सम्मलेन में कहा गया कि हिन्दू समाज तभी दुनिया में सम्मानपूर्वक जी सकेगा, जब प्रत्येक हिन्दू स्वयं को सिर्फ हिन्दू के नाते पहचानेगा। हमें जातिगत भेदभाव को दूर कर हिन्दुओं के नाते संगठित होना होगा।
केरल – 1982 एर्नाकुलम्, सम्मेलन में 95 धार्मिक एवं सामाजिक संगठनों की भागीदारी।
द्वितीय विश्व स्तरीय सम्मेलन 1979-प्रयाग:-
24 जनवरी, 1979 विश्व संस्कृत सम्मेलन, 25 जनवरी, 1979 सन्त सम्मेलन, 26 जनवरी, 1979 मातृ सम्मेलन, 27 जनवरी, 1979 विश्व हिन्दू सम्मेलन। विश्व संस्कृत सम्मेलन की अध्यक्ष्ता डा0 कर्ण सिंह जी ने की थी। मातृ सम्मेलन की अध्यक्षता श्रीमती महादेवी वर्मा ने की थी, नगारानी माँ गाइडिल्यू सम्मेलन में पधारी थीं। मातृ सम्मेलन ने घोषणा की थी कि ‘स्त्री ही संस्कारित समाज का निर्माण कर सकती है, सेवावृत्ति स्त्री का सहज स्वभाव है और पावित्र्य की रक्षा। अध्यक्षा श्रीमती महादेवी वर्मा ने कहा था कि महिलाएं अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करें और समाज के उपेक्षित महिलाओं के विकास के लिए समुचित प्रयास करे। सन्त सम्मेलन की अध्यक्षता महामण्डलेश्वर पूज्य प्रकाशानन्द जी महाराज ने की थी। सम्मेलन में सन्तों ने समाज में फैल रही भ्रान्तियों का उत्तर दिया था और हिन्दू, हिन्दी, संस्कृति और गोमाता की रक्षा का दायित्व स्वीकार करते हुए घोषणा की थी कि जिस धर्म की रक्षा हम अपने मठों में बैठकर कर रहे हैं, उसी की रक्षा के लिए गाँव-गाँव भ्रमण करें और जागरण का मंत्र फूँके। हमें व्यक्तियों को सुसंस्कार देने हैं। वनवासियों के कल्याण के लिए तीव्र गति से कार्य करना आवश्यक है। आपसी भेदभाव मिटाकर यह बोध जगाना है कि हम हिन्दू हैं। विदेशस्थ हिन्दू सम्मेलन की अध्यक्षता लाला हंसराज जी ने की थी। सम्मेलन में 23 देशों के प्रतिनिधि उपस्थित थे, विदेशस्थ हिन्दुओं की गौरव रक्षा, सुरक्षा, सहयोग एवं बंगलादेश के हिन्दुओं पर प्रस्ताव स्वीकार किए गए थे। देश-विदेश के एक लाख से अधिक प्रतिनिधियों ने भाग लिया। सभी सत्रों को मिलाकर तीन लाख से अधिक लोगों ने इन कार्यक्रमों को देखा और सुना।
इन सम्मेलनों ने समाज में स्वाभिमान पैदा किया, यह भाव पनपा कि ‘‘हम सब हिन्दू हैं।’’ जहाँ-जहाँ सम्मेलन हुए वहाँ संगठन की इकाइयाँ गठित होने लगीं।
तृतीय विश्व हिन्दू सम्मेलन फरवरी,
2007-प्रयागराज अर्द्ध कुम्भ मेला, उपस्थिति-दो लाख। भारत हिन्दूराष्ट्र है, इसी एक सूत्र को आधार बनाकर सन्तों ने समाज का मार्गदर्शन किया।
धर्मप्रसार-कार्य
पृष्ठभूमि – विश्व हिन्दू परिषद के निर्माण की वेला में जो महानुभाव स्वामी चिन्मयानन्द जी के सान्दीपनी साधनालय में एकत्रित आये थे उन सभी के लिए हिन्दुओं में हो रहा धर्मान्तरण एक महत्वपूर्ण विषय था। इसी कारण से जनवरी, 1966 में प्रयाग में आयोजित प्रथम विश्व हिन्दू सम्मेलन में परावर्तन को पूज्य सन्तों की ओर से स्वीकृति प्राप्त हुई थी। परिषद में धर्मप्रसार कार्य का सृजन हुआ। प्रथम प्रयोग राजस्थान में हुआ था। इस्लाम का उदय अरब में हुआ था। इस्लाम के आक्रमणकारी बर्बर थे। इस्लाम ने विश्व में तलवार के बलपर मानवता का विनाश किया। यही जेहादी आक्रमणकारी भारत में भी आये, इन्होंने मारकाट द्वारा भय का वायुमण्डल निर्माण किया था। इसी भय के कारण जो हिन्दू जीवित रहना चाहते थे उन्होंने मुस्लिम रीतियों का पालन करना आरभ्भ किया। ऐसी जातियां बची रही जो मुस्लिम रीतियों के साथ-साथ हिन्दू संस्कारों का भी पालन करती रही।
ब्यावर -
ऐसी ही एक जाति मेहरात है, ये चैहानवंशीय क्षत्रिय हैं, इन्होंने विवाह में कलमा पढ़ने के साथ पण्डितों के द्वारा सप्तपदी का चलन भी अपना रखा था, इनकी वेशभूषा और त्यौहार हिन्दुओं जैसे ही रहे। अजमेर, पाली और भीलवाड़ा जनपद में इनकी जनसंख्या लगभग तीन लाख है। इनके पूर्वज सम्राट पृथ्वीराज चैहान थे और इनकी इष्टदेवी आशापूर्णा माँ है। इन्हें अपने वंश का स्मरण सदैव बना रहा, इनके श्रेष्ठ पुरूषों ने कभी जोधपुर महाराजा से आग्रह किया था कि एक बार आप हमारी पंगत में बैठकर भोजन करें और हमें चैहान वंशीय क्षत्रीय घोषित कर दें तो हम सभी पूर्णरूप से हिन्दूधारा में आ जायेंगे। जोधपुर महाराजा की अनायास मृत्यु के कारण यह कार्य सम्पन्न नहीं हो सका।
परिषद के राजस्थान प्रान्त के कार्यकर्ताओं ने इस जाति के ग्रामों में जाकर अध्ययन किया व जाति के श्रेष्ठजनों से सम्पर्क प्रारम्भ किया। सम्राट पृथ्वीराज चैहान की जयन्ती मनाना शुरू किया, आशापुरा माता रथ यात्रा का आरम्भ हुआ। क्रमशः कार्यक्रमों का क्रम बढ़ा, जनमन में अपने पूर्वजों के घर में आने की चाह खड़ी हुई। यज्ञ-हवन ने इस चाह को परावर्तन (घरवापसी) में परिणित कर दिया। अब तक लगभग 80 हजार मेहरातों की घर वापसी हुई है। इनके ग्रामों में लगभग 60 मंदिरों का निर्माण किया गया है, ग्रामों में भजन मण्डलियां चलती हैं, विद्यालय संचालित हैं, छात्रावास चलता है। इस क्षेत्र का केन्द्र ब्यावर है। वहीं एक आशापुरा माता का मंदिर बनाया गया है, जहाँ नवरात्र महोत्सव के समय चैहानभक्त बड़े-बडे झण्डे लेकर, पदयात्रा करते हुए आते हैं।
बांसवाड़ा –
राजस्थान के बांसवाड़ा जिला में 70 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति का निवास है। अंग्रेजों के शासनकाल से इस जिले पर चर्च की दृष्टि पड़ी थी। चर्च ने भील वनवासियों को भारी संख्या में ईसाई बनाया। एक समय यह स्थिति बन गई थी कि यहाँ राम-राम के बजाय जय ईशु गूंजता था।
जनजाति से सम्पर्क साधा गया है, उनमें अपने पूर्वजों, देवी-देवताओं का भाव जागृत हुआ है, घर के द्वार पर गणेश लगवाये गये, गणेश महोत्सव किये गये, गांवों में हनुमान मंदिर निर्माण किये, भजन मंडलियों का निर्माण व पहले से चली आ रही भजन मंडलियों को प्रोत्साहन दिया गया। बांसवाड़ा नगर में प्रतिवर्ष 6 दिसम्बर को लगभग 15 से 20 हजार जनजाति बन्धु अपनी भजन मंडलियों सहित आते हैं, सन्तों के प्रवचन होते हैं, रातभर भजन गाये जाते हैं।
बांसवाड़ा, डूंगरपुर व प्रतापगढ़ के जनजातीय क्षेत्रों में लगभग 400 विद्यालय चल रहे हैं, जिनमें लगभग 42 हजार विद्यार्थी पढ़ते हैं। ये सभी इसी क्षेत्र की जनजाति के लाल हैं, शिक्षक 99 प्रतिशत जनजातीय बन्धु है। परिणामस्वरूप आज ईसाईयत सिकुड़ गई है और जनजाति समाज गर्वीला हिन्दू बना है। आसपास के जिलों में 30 छात्रावास भी चलते हैं। 636 भजन मंडलियों के माध्यम से जनजातीय बन्धुओं से सम्पर्क बना है।
जहाँ-जहाँ सन्तों का सम्पर्क बढ़ा वहाँ-वहाँ परावर्तन (घरवापसी) के कार्यक्रम हो रहे हैं। पूर्वी आन्ध्र में प्रतिमास परावर्तन के कार्यक्रम हो रहे है।
तमिलनाडु –
रामनाथपुरम (तमिलनाडु) जिले के जिन गाँवों में सामूहिक धर्मान्तरण हुआ था वहाँ व्यापक जन सम्पर्क व अध्ययन, सन्तों की पदयात्राएं कराई गईं। सन्तों ने हरिजनों के साथ बैठकर भोजन किया। हरिजन परिवार में जन्मे एवं मलयेशिया के एक मठ के स्वामी श्रीरामदास जी महाराज के साथ उन गाँवों में हरिजनों की गोष्ठियाँ हुई, उन्होंने धर्मान्तरण का विचार छोड़ा और दो महीने तक उन्हीं क्षेत्रों में स्वामी रामदास जी महाराज ने गाँव-गाँव भ्रमण किया।
1981 में तमिलनाडु के एक कस्बे मीनाक्षीपुरम में बड़ी संख्या में हरिजन परिवारों को मुस्लिम बना लिए जाने से हिन्दू समाज चकित रह गया। परिषद ने इनको वापस लाने का संकल्प लिया। हिन्दू समाज में नई चेतना जगी। संस्कृति रक्षा योजना बनी। जुलाई, 1982 में हरिद्वार में अखिल भारतीय प्रशिक्षण वर्ग लगा, 114 कार्यकर्ता आए। धर्मान्तरण के विरुद्ध व्यापक जन जागरण का संकल्प लिया गया। गाँव-गाँव सम्पर्क, जनसभाएं, समूह बैठकें, प्रभात फेरियाँ, सन्तों के प्रवचन प्रारम्भ हुए।
तमिलनाडु के इदंतकुराई ग्राम में मछुआरे रहते थे। इनके पूर्वजों को 400 वर्ष पूर्व ईसाई बना लिया गया था परन्तु चर्च इन पर अत्याचार करता था। घर लूटना, घरों को आग लगाना, झूठे मुकदमें चलाना, माँ-बहनों पर अत्याचार होते थे। परिषद कार्यकर्ताओं ने सम्पर्क किया और 176 परिवारों के 1200 सदस्यों ने विधिवत परावर्तन किया।
धर्मप्रसार का उद्देश्य-
समाज के आबालवृद्ध में हिन्दूधर्म के प्रति निष्ठा-भक्ति निर्माण कर इसे सुदृढ़ स्वाभिमानी हिन्दू के रूप में खड़ा करेंगे।
धर्मान्तरण को रोकना-
इस्लाम के काल से तलवार के आधार पर धर्मान्तरण हुआ। अंग्रेजी काल में बड़ी मात्रा में धर्मान्तरण हुआ। धर्मान्तरण के कारण ही पाकिस्तान बना। धर्मान्तरित होने वाला अपनी पूर्वपम्परा, पूर्वज, ग्रंथ, देवी-देवता को त्यागकर विदेशी धर्मनिष्ठा को स्वीकार कर लेता है, भारत को माँ कहने और वन्देमातरम् घोष का विरोध करने लगता है। अतः धर्मान्तरण राष्ट्रान्तरण है। इस धर्मान्तरण को रोकना आवश्यक है।
परावर्तन को सन्तों ने स्वीकारा-
हिन्दू समाज से छीन लिए गए थे अतः अब वापस हिन्दू समाज में ही आ रहे हैं, इसी कारण यह धर्म परिवर्तन नहीं अपितु परावर्तन है। जनवरी, 1966 में प्रयाग में सम्पन्न हुए प्रथम विश्व हिन्दू सम्मेलन में इसी परावर्तन को सन्तों की स्वीकृति प्राप्त हुई।
समझाकर, पूर्वजों की याद दिला कर वापिस लाना परावर्तन है। इसे ही घर वापसी कहा जाता है।
समरसता का प्रयास-
जो घर में आ गये उनको शिक्षित व संस्कारित करना, उन्हें ठीक प्रकार बसाना, सुरक्षा करना, रोजी-रोटी का प्रबन्ध करना, सन्तति को शिक्षित कर कार्य प्रवण बनाना आवश्यक है। इस दृष्टि से संस्कार केन्द्रों का संचालन, मंदिरों का निर्माण, भजनमंडलियों का गठन, विद्यालय, छात्रावास निर्माण, कथा-प्रवचन कार्यक्रम किए जाते हैं। समाज में वे सम्मानित जीवन जियें, ऐसा मन हिन्दू समाज तैयार किया जाता है।
समरसता हेतु सामूहिक कार्यक्रमों का आयोजन, त्योहारों पर, तीर्थयात्राओं के अवसर पर, सभी को सम्मानित करने का कार्य, वाल्मीकि जयन्ती, रविदास जयन्ती मनाना, ‘न हिन्दू पतितो भवेत’, ‘हिन्दव सोदरा सर्वे’ के भाव को प्रबल बनाते हैं। इस सम्पूर्ण कार्य के लिए 300 कार्यकर्ता रात-दिन भ्रमण व परिश्रम करते हैं। जातियों का चयन कर उनके लिए विशेष प्रकल्प तैयार करके, भिन्न-भिन्न प्रकार के सेवा कार्य ऐसे क्षेत्रों में चलाए जा रहे हैं।
सामाजिक समरसता के कार्य.
1969 उडुप्पी में सम्पन्न सम्मेलन में अस्पृश्यता के विरुद्ध सन्तों का उद्घोष।
1970 में महाराष्ट्र के पंढरपुर अधिवेशन में द्वारका तथा शृंगेरी के जगद्गुरु शंकराचार्य और मध्व तथा वल्लभ संप्रदायों के पूज्य आचार्यों ने छुआछूत का विरोध किया।
देशभर में शिक्षा, आरोग्य, स्वावलम्बन के लिए सेवा कार्य प्रारम्भ।
1982 की तमिलनाडु ज्ञान रथं यात्रा – रथ पर लकड़ी का मन्दिर बनाकर, भगवान मुरुगन की मूर्ति प्रतिष्ठापित कर इसे उन पिछड़े क्षेत्रों में ले जाया गया, जहां हिंदू धर्म विरोधी प्रचार चलाया जा रहा था। लगभग 21,000 कि.मी. लंबी इस यात्रा में छह लाख लोगों से संपर्क हुआ।
1983 में कर्नाटक के उजीरे धर्मस्थल पर हुए सम्मेलन में 60,000 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इसमें हिंदू धर्म के मठों के लगभग 174 अधिपतियों ने सर्वसम्मति से अस्पृश्यता के उन्मूलन और हिंदू एकता के लिए संघर्ष का आह्वान किया।
केरल में 1983 में सन्तों के नेतृत्व में दो धर्मरथों में धर्मयात्रा प्रारम्भ। सन्तों ने मुख्य रूप से हरिजन बस्तियों का भ्रमण किया और उन्हीं की झोपडि़यों में जाकर उन्हीं के द्वारा बनाया गया तथा उन्हीं के द्वारा वितरित किया गया भोजन ग्रहण किया।
सेलम (तमिलनाडु) संत सम्मेलन –
जनवरी, 1988। सम्मेलन में वैदिक, बौद्ध, नामधारी सिख आदि प्रमुख संप्रदायों के 23 मठाधिपतियों ने भाग लिया। सम्मेलन में सर्वसम्मत निर्णय हुआ कि छूआछूत का हिंदू धर्म में कोई स्थान नहीं है। इसे पूर्णतया समाप्त किया जाना चाहिए।
अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि मन्दिर का शिलान्यास नवम्बर, 1989 में बिहार के एक हरिजन कार्यकर्ता श्री कामेश्वर चैपाल जी से कराया गया।
ग्राम पुजारी प्रशिक्षण –
तिरुम लैकोदी (तमिलनाडु) में सन 1990 से ग्रामीण मंदिर के पुजारियों को प्रशिक्षण देने के लिए 15-15 दिन के शिविर लगाये गये। इनमें वनवासी, जनजाति, अति पिछड़ी, पिछड़ी, और अगड़ी जातियों के इन वर्षों में ऐसे शिविरों के द्वारा कई हजार पुजारी मंदिर में पूजा-अर्चन के लिये प्रशिक्षित हुये। कोविल पैरावेरू, त्रिचनापल्ली में 5,300 ग्राम पुजारियों का एक प्रांतीय सम्मलेन 1995 में हुआ। इसका उद्देश्य पुजारियों को संगठित कर उन्हें अपने अधिकार और कर्तव्य के प्रति सजग करना था। परिणाम स्वरुप पुजारियों को सरकार से पेंशन मिलने लगी।
1994 में काशी में धर्मसंसद का आयोजन हुआ। सन्त-महात्मा डोमराजा के घर निमन्त्रण देने के लिए स्वयं चलकर गए, प्रसाद ग्रहण किया, अगले दिन डोमराजा धर्मसंसद अधिवेशन में मंच पर सन्तों के मध्य बैठे, सन्तों ने पुष्प-हार पहनाकर स्वागत किया। इस धर्मसंसद में 3500 सन्त उपस्थित थे।
महर्षि वाल्मीकि व सिद्धू-कान्हू रथ यात्राएं –
आजादी के बाद से ही समाज को जाति व धर्म के आधार पर बांटने के प्रयास हो रहे थे। इसके विरुद्ध जनजागरण हेतु मार्च, 1994 में बिहार में दो रथ यात्राएं आयोजित कीं। 1. महर्षि वाल्मीकि रथ यात्रा, जो उत्तर बिहार के क्षेत्रों में गयी। 2. सिद्धू कान्हू रथ यात्रा जो सिंहभूम जिले से बिहार के अत्यंत पिछड़ेे क्षेत्रों में गयी। दोनों यात्राओं ने लगभग तीन हजार कि.मी. की दूरी तय की और लाखों लोगों की इसमें सहभागिता हुई। इस यात्रा ने अति पिछड़े जनजातीय व वनवासी लोगों के हृदय को छुआ। इससे सामाजिक समरसता का वातावरण बिहार में निर्मित हुआ।
अक्टूबर,1995 में द्वितीय एकात्मता यात्रा के नागपुर में समापन के अवसर पर हिन्दू सम्मेलन। सन्त-महात्मा दीक्षा भूमि पर दर्शन करने गए।
अप्रैल, 2005 में छत्तीसगढ़ के अम्बिकापुर से बिलासपुर तक 782 कि.मी. की पदयात्रा सामाजिक समरसता कार्यक्रम के अन्तर्गत सम्पन्न।
सन्त रविदास चेतना यात्रा –
नवम्बर-दिसम्बर, 2005 में चित्तौड़ से काशी तक सन्त रविदास जी की प्रतिमा के साथ 12 दिवसीय गुरु रविदास चेतना यात्रा का आयोजन, 1600 कि.मी. की दूरी में 25 जनसभाएं, 245 स्थानों पर स्वागत, 10 स्थानों पर शोभायात्राएं। कार्यक्रम का आयोजन सन्तों के नेतृत्व में हुआ।
2006 में उड़ीसा में अष्टमातृका रथयात्रा –
8 देवी पीठों से रथयात्रा उड़ीसा में 7 दिन तक भ्रमण, सभी गाँव से मिट्टी और जल चकापाद लाया गया। गोवर्धन पीठाधीश्वर पूज्य जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद जी महाराज एवं स्वामी लक्ष्मणानंद जी महाराज के द्वारा स्फटिक शिवलिंग का अभिषेक एवं संग्रहीत मिट्टी से तुलसीचैरा बनाया गया। 265 गाँवों से यात्रा गुजरी, 115 धर्मसभाएं, 1684 स्थानों पर स्वागत हुआ। यात्रा के दौरान हनुमान चालीसा, सुन्दरकाण्ड, रामचरितमानस, श्रीमद्भगवद्गीता, श्रीराम के चित्र व लाॅकेट वनवासी समाज को सन्तों द्वारा भेंट किए गए।
1986 में सुन्दरगढ़ (उड़ीसा) में वनवासी तथा औरंगाबाद (बिहार) में जातीय एकता सम्मेलन किये गये।
स्वर्ण जयंती समारोह वर्ष 2014-2015 (Golden Jubilee Celebration Year 2014-2015)
विश्व हिन्दू परिषद कार्य में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का दिन ऐतिहासिक है। 50 वर्ष पूर्व वर्ष 1964 में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के दिन सांदीपनी साधनालय के इसी पवित्र स्थल पर देश के स्वनामधन्य संतजन व हिन्दुस्थान व हिन्दू समाज के गौरवशाली स्वरूप को देखने की इच्छा रखनेवाले महानुभाव एकत्र आए थे। सांदीपनी साधनालय के अधिष्ठाता पूज्यपाद स्वामी चिन्मयानंद जी महाराज, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक परम पूजनीय श्री गुरुजी, मास्टर तारासिंह जी, सद्गुरु जगजीत सिंह जी, रामटेक के योगशिरोमणि सीताराम दास जी महाराज, राष्ट्र संत तुकडो जी महाराज, डॉ0 कन्हैयालाल माणिक लाल मुंशी, हिन्दू महासभा के तत्कालीन महासचिव श्री बी0जी0 देशपाण्डे सरीखे श्रेष्ठजन इस अवसर पर उपस्थित थे, जिन्होंने हिन्दू समाज का चिंतन करते हुए विश्व हिन्दू परिषद के गठन की घोषणा की थी।
अमरनाथ मुद्दा वास्तव में क्या है:
इस वर्ष, जून 2008 के अंत तक, ढाई लाख से अधिक तीर्थयात्रियों ने जम्मू-कश्मीर में हिमालय में बाबा अमरनाथ में भगवान शंकरजी के पवित्र बर्फ के शिवलिंग के दर्शन किये हैं। कश्मीर घाटी में अलगाववादी और कट्टरपंथी मुसलमानों को यह बर्दाश्त नहीं हुआ। जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय के आदेश पर, जम्मू-कश्मीर राज्य सरकार। देशभर से आने वाले लाखों हिंदू तीर्थयात्रियों की व्यवस्था के लिए अमरनाथ श्राइन बोर्ड को 40 हेक्टेयर भूमि आवंटित की गई। इस बहाने के तहत कि सरकार. सरकार कश्मीर घाटी में हिंदुओं को बसाने के लिए जमीन दे रही थी, जून 2008 के अंत में कश्मीर घाटी में मुस्लिम अलगाववादी ताकतों द्वारा आंदोलन शुरू किया गया था। घाटी में आम मुस्लिम आबादी ने भारी संख्या में सड़क पर आकर और बाबा अमरनाथ यात्रा के वाहनों पर पथराव करके इसका भरपूर समर्थन किया। अनेक हिन्दू तीर्थयात्री बुरी तरह घायल हो गये। तीन-चार दिन तक लगातार यात्रा बाधित रही। यह भगवान शंकरजी के दर्शन को रोकने और बाबा अमरनाथ यात्रा को रोकने का सीधा प्रयास था। अमरनाथ श्राइन बोर्ड को भूमि आवंटन के आदेश को रद्द करने की मांग रखी गई. मुस्लिम राजनीतिक दल, पीडीपी, जो राज्य सरकार में कांग्रेस के साथ सत्तारूढ़ गठबंधन का हिस्सा था। सरकार से बाहर निकलने की धमकी दी. यदि 30 जून तक भूमि आवंटन निरस्त नहीं किया गया। यह नवंबर 2008 में भविष्य के राज्य विधानसभा चुनावों को ध्यान में रखते हुए एक राष्ट्र-विरोधी मांग का खुला समर्थन था। आखिरकार, पीडीपी ने राज्य सरकार से समर्थन वापस ले लिया। 28 जून को कांग्रेस सरकार गिराने के लिए. अल्पसंख्यक को. हमेशा की तरह, कांग्रेस मुस्लिम कट्टरपंथी ताकतों के दबाव के आगे झुक गई और सबसे पहले श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड को दी गई भूमि पर चल रहे निर्माण कार्य को रोक दिया। तब अमरनाथ श्राइन बोर्ड ने घोषणा की कि उसे भूमि आवंटन की आवश्यकता नहीं है। . ऐसा इस बहाने से किया गया कि अमरनाथ श्राइन बोर्ड इसके लिए सहमत हो गया है (बाहें घुमाकर) अगर राज्य सरकार। आश्वासन दिया कि वह तीर्थयात्रियों के लिए सभी आवश्यक व्यवस्थाएं करेगा। राज्य सरकार. अगले चरण में, अमरनाथ तीर्थ यात्रा को शक्तिहीन और निरर्थक बनाकर पूरी यात्रा की व्यवस्था अपने हाथ में ले ली। इसके विरोध में जम्मू क्षेत्र में हिंदुओं का बड़ा आंदोलन शुरू हो गया और दो दिनों के लिए बंद का आह्वान किया गया जिसे 1 दिन और बढ़ाकर 2 जून तक कर दिया गया। बंद सफल और व्यापक रहा. आंदोलनकारियों ने आपूर्ति में कटौती करते हुए कश्मीर घाटी के राष्ट्रीय राजमार्ग को भी अवरुद्ध कर दिया। सरकार. हिन्दू आन्दोलनकारियों पर भारी क्रूर बल प्रयोग किया। 29 जून को मुस्लिम अलगाववादी आंदोलनकारियों ने 2 और बेहद खतरनाक और राष्ट्र-विरोधी मांगें रखीं। सबसे पहले अमरनाथ श्राइन बोर्ड को भंग करने की मांग रखी गई. दूसरे, सेना को कश्मीर घाटी में कब्जा की गई सारी वन भूमि वापस कर देनी चाहिए। वहां सेना का रहना फिलिस्तीन में इजराइली सेना के बराबर था! प्रथम से लेकर अब तक की सभी माँगें पर्यावरण एवं वन संरक्षण की रसभरी भाषा में समाहित थीं। लेकिन इन दो देश विरोधी मांगों से असली इरादे सामने आ गए. इसने उन सभी हिंदू तीर्थस्थलों के लिए भविष्य के खतरे (तथाकथित धर्मनिरपेक्ष ताकतों या हिंदू विरोधी कट्टरपंथी ताकतों से) का भी संकेत दिया जो या तो जंगल में या पहाड़ की चोटियों पर स्थित हैं (जैसे वैष्णव देवी मंदिर, तिरुपति मंदिर, अय्यपा मंदिर आदि)
बाबा अमरनाथ यात्रा बाबा अमरनाथ यात्रा
VHP ने सरकार के सामने रखीं 5 मांगें
1) जमीन की बहाली और साथ ही अमरनाथ यात्रा की व्यवस्था श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड को वापस देना।
2) गरीबों के लिए चिकित्सा सुविधाएं शुरू करने के लिए हज हाउस की सभी संपत्तियों को सामान्य रूप से समाज को वापस लेना और बहाल करना।
3) हज यात्रियों को दी जाने वाली हज सब्सिडी रद्द करें.
4)अल्पसंख्यक राज्य सरकार को बर्खास्त करें। जम्मू-कश्मीर की, और वहां व्यापक राष्ट्र-विरोधी मुस्लिम कट्टरपंथी, आतंकवादी गतिविधियों को नष्ट करने के लिए जम्मू-कश्मीर राज्य को सेना को सौंप दिया जाए।
5) जम्मू-कश्मीर को मिले अनुच्छेद 370 को ख़त्म करें।
अमरनाथ मुद्दा वास्तव में क्या है:
1. अमरनाथ और सभी हिंदू मंदिर, तीर्थ और हिंदुओं के पवित्र पूजा स्थल जंगलों, पहाड़ियों और पहाड़ों पर, नदियों और समुद्रों के किनारे सदियों से मौजूद हैं, इस्लाम के जन्म से ठीक 1500 साल पहले से भी बहुत पहले से। इसलिए कोई अन्य धर्म या सरकार उक्त पूजा स्थलों की भूमि या आसपास का दावा करना हास्यास्पद है।
2. इसलिए, किसी अन्य धर्म या किसी सरकार को यह अधिकार नहीं है कि वह हिंदुओं को यह बताए कि कहां, कैसे, कब, किसे यात्रा पर जाना चाहिए या प्रार्थना करनी चाहिए। न तो अमरनाथ, न ही वैष्णोदेवी या कश्मीर या भारत में कहीं भी हजारों हिंदू पूजा स्थलों पर किसी भी सरकारी या अन्य धर्म या पंथ का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए क्योंकि यह सदियों से हिंदुओं की आस्था का मामला है।
3. जम्मू और कश्मीर उच्च न्यायालय ने 2002 में आदेश दिया कि सुप्रीम कोर्ट के पारिस्थितिक दिशानिर्देशों के अनुसार 2 महीने के लिए (वहां बहुत दुर्गम और ठंडे वातावरण के कारण) यात्रियों की व्यवस्था के लिए अमरनाथ यात्रा के लिए अमरनाथ की भूमि दी जाए।
4.2002 में जम्मू और कश्मीर विधानसभा ने पारित किया कि अमरनाथ श्राइन बोर्ड एक स्वायत्त निकाय होगा जिसमें केवल हिंदू सदस्य होंगे जो अमरनाथ तीर्थ का रखरखाव करेगा और अमरनाथ यात्रा की पूरी जिम्मेदारी भी लेगा।
5. अब जिस भूमि की बात हो रही है वह जम्मू-कश्मीर सरकार द्वारा अमरनाथ में हिंदू यात्रा की सुविधा के लिए उपहार या मुफ्त के रूप में नहीं दी गई थी! इसे अमरनाथ श्राइन बोर्ड को रुपये लेकर दिया गया था। 2 करोड़, 31 लाख. भारत में अन्य सभी स्थानों पर, मुस्लिम और अन्य धर्म अपनी यात्राओं, हज, उर्स आदि के लिए जो भूमि का उपयोग कर रहे हैं, वह सरकार द्वारा एक विशेष उपहार है, जिसमें हज हाउस या हज के समय हवाई अड्डों पर बनाए गए विशेष ढांचे शामिल हैं (इसकी अनदेखी) सुरक्षा खतरा) या अजमेर या हाजी अली (मुंबई) आदि में।
6. इन सबके बावजूद, अब सरकार ने अपनी मनमर्जी से जेहादियों की मांगों को ध्यान में रखते हुए अमरनाथ भूमि वापस ले ली। ऐसा करते समय सरकार ने संवैधानिक मानदंडों को तोड़ा है, क्योंकि अमरनाथ यात्रा के संरक्षक के रूप में, अमरनाथ श्राइन बोर्ड के सदस्यों से परामर्श किया जाना चाहिए था। लेकिन राज्यपाल ने अचानक, जैसे कि वह व्यक्तिगत रूप से अमरनाथ और भूमि के मालिक हों, स्वायत्त बोर्ड की कोई बैठक नहीं बुलाई। यह असंवैधानिक है.
7. इसके अलावा, जेहादियों को खुश करने के लिए, सरकार ने अमरनाथ श्राइन बोर्ड से अमरनाथ यात्रा की जिम्मेदारी भी छीन ली, जिसमें केवल हिंदू सदस्य थे, जो हिंदू यात्रियों की सहानुभूतिपूर्वक देखभाल करते थे। अब सरकार ने यह यात्रा मुसलमानों द्वारा संचालित जम्मू-कश्मीर पर्यटन विभाग को दे दी। परिणाम? अमरनाथ यात्रियों को रास्ते में टट्टूवाले भी लूट रहे हैं, जो 10,000 रुपये से अधिक वसूल रहे हैं। यात्रियों को पीटा जाता है और आतंकित किया जाता है। 2 दिन पहले अमरनाथ में बादल फटा था, जहां 50 से ज्यादा टेंट क्षतिग्रस्त हो गए थे, यात्रियों को खाना खिलाने वाले लंगर बह गए थे, कई यात्री घायल हो गए थे, लेकिन किसी ने समय पर मदद नहीं की।
जब टीवी चैनलों ने इसे और जम्मू में हिंदुओं के खिलाफ पुलिस की बर्बरता को दिखाया, तो सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया, मीडिया को पीटा।
1. ये सिर्फ अमरनाथ का मामला नहीं है. हिंदुओं और हिंदू पूजा स्थलों के खिलाफ यह सरकारी जेहाद भारत में हर जगह देखा जाता है, चाहे वह समुद्र के हमले से रामेश्वरम रामसेतु को तोड़ने का प्रयास हो, समुद्र के हमले से रामेश्वरम शिव मंदिर को खतरे में डालना हो, त्र्यंबकेश्वर ज्योतिर्लिंगम में दीपक पर प्रतिबंध लगाना हो या हज हाउसों को हिंदू भूमि और गौचर भूमि देना हो। यह पूरे भारत के हिंदुओं के खिलाफ एक गंभीर साजिश है और उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम सहित पूरे भारत के हिंदुओं ने इसे महसूस किया है। दक्षिण भारत में सबसे अधिक प्राचीन मंदिर हैं और रामेश्वरम शिव मंदिर को नष्ट करने के लिए रामेश्वरम रामसेतु को तोड़ना दक्षिण भारत द्वारा बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। तमिलनाडु में, सरकार ने अर्चकों (पंडितों) को संस्कृत में प्रार्थना न करने के लिए भी मजबूर किया है! वही सरकार जिहाद सिखाने वाले उर्दू और कुरान सीखने वाले मदरसे के छात्रों को नौकरी देती है।
2. इसलिए, अमरनाथ हिमशैल का सिरा है और पूरे भारत के हिंदुओं ने भारत में सभी हिंदुओं और सभी हिंदू पूजा स्थलों को खत्म करने के लिए जेहादियों के साथ मिलकर सरकार की बड़ी योजना को समझ लिया है।
3. पिछले कुछ समय से जम्मू-कश्मीर में हिंदुओं को आतंकित किया गया है, प्रताड़ित किया गया है, मार दिया गया है, उनके पूजा स्थलों, मंदिरों को नष्ट कर दिया गया है। कश्मीर से, कश्मीरी हिंदुओं को अब तक के सबसे भयानक नरसंहार के बाद मजबूर किया गया था और आज भी उन्हें स्थानांतरित नहीं किया गया है। अब अमरनाथ का उपयोग करके, वही सरकारें और जेहादी जम्मू के हिंदुओं को बाहर निकालने की योजना बना रहे हैं।
4. असम, दक्षिण भारत के अधिकांश तटीय क्षेत्रों, बंगाल में भी ऐसा ही हो रहा है, भारत के सभी गांवों में प्रवेश और निकास द्वार पर अनधिकृत मस्जिदें और मदरसे हैं जो जेहादियों का समर्थन और मदद कर रहे हैं और हिंदू मंदिरों और अर्थव्यवस्था को नष्ट कर रहे हैं। यह
बूढ़ा अमरनाथ यात्रा
वर्ष 2005 में जम्मू-कश्मीर राज्य में गतिविधि बढ़ाने का निर्णय लिया गया। मुख्य रूप से जम्मू संभाग में भारत के उत्तर-पश्चिम सीमा क्षेत्र में हिंदुओं को होने वाली कठिनाइयों को देखते हुए, वहां लंबे समय से चल रही यात्रा को प्रोत्साहित करने का निर्णय लिया गया। बजरंग दल ने अपने कार्यकर्ताओं से इस बूढ़ा अमरनाथ यात्रा में शामिल होने का आह्वान किया, जो सीमा से लगभग 2 किमी दूर, भारत के उत्तर-पश्चिमी कोने में पुंछ जिले के पास थी। यात्रा के लिए हजारों की संख्या में बजरंग दल के कार्यकर्ताओं का आना शुरू हो गया है, जो राजौरी, सुंदरबनी और पुंछ क्षेत्र से होकर गुजरेगी, जो सीमा पार से इस्लामी आतंकवादी गतिविधि और घुसपैठ के लिहाज से सबसे संवेदनशील क्षेत्रों में से कुछ हैं |
पहले साल में बुड्ढा अमरनाथ यात्रा पर 3 हमले हुए थे. सेना ने आतंकियों से निपटने का शानदार काम किया. इस नई यात्रा ने इस क्षेत्र में रहने वाले हिंदुओं को उत्साहित कर दिया। इससे उन्हें आर्थिक लाभ भी होने लगा। तब से अधिक से अधिक लोग इस यात्रा के लिए आ रहे हैं। पुंछ जिले में अब केवल 7% हिंदू बचे हैं। इस यात्रा ने वहां रहने का उनका संकल्प बढ़ाया है और यात्रा ने उन्हें और अधिक एकजुट भी किया है। पिछले वर्ष 2007 में, भारत के इस सुदूर, लुप्तप्राय कोने में एक लाख से अधिक तीर्थयात्री यात्रा के लिए गए थे!
गंगा रक्षा आंदोलन
गंगा केवल एक नदी नहीं है, बल्कि यह भारतवासियों की श्रद्धा और अस्मिता का प्रतीक भी है। उसके रूप और मर्यादा की रक्षा की दृष्टि से; उसकी धारा बाधित न हो; उसकी शुद्धता और पवित्रता कायम रहे; इसके जल की प्राचीन शुद्धता को प्रदूषित न होने देने के लिए 08 फरवरी 1997 को पूर्व सांसद स्वामी चिन्मयानंद की अध्यक्षता में "श्री गंगा रक्षा समिति" का गठन किया गया। समिति के उद्देश्यों के रूप में निम्नलिखित गतिविधियाँ तय की गईं:
गतिविधियाँ
- श्री को बनाए रखने में विभिन्न सरकारी, गैर-सरकारी, सामाजिक और कई अन्य संगठनों को सूचीबद्ध करना और सहयोग की पेशकश करना। गंगा अपने उद्गम से लेकर सागर में विलीन होने तक अक्षुण्ण और प्रदूषण से पूर्णतः मुक्त है।
- श्री को बनाये रखने हेतु योजनाएँ तैयार करने हेतु जनता को जागृत करना। गंगा प्रदूषण मुक्त. सरकारी एवं गैर सरकारी संस्थाओं को सहयोग प्रदान करें। उनके मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करने का प्रयास करना तथा गंगा पर किसी भी प्रकार के बांध के निर्माण का विरोध करना।
- उपरोक्त कार्यों के उद्देश्य से वैज्ञानिक सेमिनार आयोजित करना; पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिखना; साहित्य प्रकाशित करना; ऑडियो-वीडियो फिल्में तैयार करना।
- गंगा को प्रदूषण मुक्त बनाए रखने और उसके किनारे के गांवों, शहरों और तीर्थ केंद्रों में नागरिक समितियों का गठन करके उसके पूरे घाटों को स्वच्छ और गंदगी मुक्त बनाए रखने के लिए।
- गोमुख से गंगा सागर तक के ग्लेशियरों, जल स्रोतों एवं झरनों का वैज्ञानिक अध्ययन कर गंगा जल के औषधीय गुणों के संबंध में शोध कार्य करना।
- बाढ़ आदि जैसी प्राकृतिक आपदाओं के दौरान गंगा के किनारे के गांवों और शहरों के लोगों के लिए राहत की व्यवस्था करना, उनके लिए कल्याणकारी योजनाएं और कार्यक्रम तैयार करना और उनके कष्टों को दूर करने के लिए की जाने वाली सभी गतिविधियों में भाग लेना।
- हर गांव में विशेष रूप से आर्थिक रूप से पिछड़े भाइयों को शुद्ध पीने योग्य पानी उपलब्ध कराने में मदद करना।
- अस्थियों के विसर्जन के लिए देश भर के साथ-साथ विदेशों से आने वाले लोगों की सहायता करना।
- गंगा के किनारे महत्वपूर्ण स्थानों पर नागरिक समितियाँ और संसदीय मंच बनाना।
- आर्थिक रूप से पिछड़ी जाति के लोगों, जिनकी आजीविका गंगा आधारित है, के शैक्षिक और सामाजिक उत्थान के लिए प्रयास करना।
टेहरी बांध परियोजना
तिहरी बांध 8,000 वर्ग फुट की ऊंचाई पर बनाया जा रहा है। बांध की कुल ऊंचाई 2,60.5 मीटर होगी। यह 42.5 वर्ग किलोमीटर का जल निकाय बनाएगा। सुश्री यह 126 गांवों को नष्ट कर देगा। 85,000 लोग बेघर हो जायेंगे, 5,2000 हेक्टेयर भूमि जलमग्न हो जायेगी। इससे 2,000 मेगावाट बिजली का उत्पादन होने और लगभग 2.6 लाख हेक्टेयर भूमि की सिंचाई होने की संभावना है। बांध की अवधि 50 वर्ष और अनुमानित लागत 12,000 करोड़ रुपये है। बांध के 80% पानी का उपयोग सिंचाई के लिए किया जाएगा और 20% को बहने दिया जाएगा। बांध का भंडारण 90% वर्षा जल से और 10% गंगा जल से होगा।
उत्तर काशी 1991 में रिक्टर पैमाने पर 6.6 तीव्रता का भीषण भूकंप झेल चुका है। यदि यह तीव्रता 7 और इससे अधिक होती तो 90,000 टीएमटी के बराबर विस्फोट होता और यह बांध टूट जाता। 22 मिनट में खाली हो जाएगा बांध का पूरा पानी; 260 मीटर लेवल का पानी 63 मिनट में पहुंचेगा ऋषिकेश; 70 मिनट में हरिद्वार में 220 मीटर पानी; 9.85 लेवल का पानी 7 घंटे और 25 मीटर में पहुंचेगा मेरठ; 12 घंटे में 8.5 मीटर पानी बुलंदशहर। दिल्ली भी जलमग्न हो जाएगी. उसके तट पर स्थित सभी तीर्थ और सभी बहुमूल्य जड़ी-बूटियाँ पूरी तरह से नष्ट हो जाएँगी। गया की फल्गु, उज्जैन की क्षिप्रा और सरस्वती की तरह गंगा भी लुप्त हो जायेगी।
गंगा को ख़त्म करने की योजना-
इस सब को ध्यान में रखते हुए, देश में कई अच्छे विचारक इन वर्षों में गंगा के प्रवाह को अवरुद्ध न करने की सलाह देते रहे हैं, जो 2,560 किलोमीटर के अपने शक्तिशाली प्रवाह के माध्यम से 1000 गांवों और शहरों को बनाए रखती है। 30 करोड़ से अधिक लोगों का 90 करोड़ लीटर से अधिक सीवेज (प्रदूषित अपशिष्ट) पानी प्रतिदिन गंगा में बहाया जा रहा है। 287 बड़े उद्योगों द्वारा हर साल 1,150 लाख टन से अधिक रासायनिक कचरा, 2,600 टन रासायनिक उर्वरक और जहरीले कीटनाशक गंगा में डाले जाते हैं। यह योजना वास्तव में गंगा को ख़त्म करने की योजना है।
कई वैज्ञानिकों, धार्मिक विचारकों और पारिस्थितिकीविदों का कहना है कि इसकी सहायक नदियों पर छोटे-छोटे बैराज/बांध बनाकर बिजली का उत्पादन किया जा सकता है और इससे देश को काफी हद तक फायदा हो सकता है। इसलिए टिहरी बांध का निर्माण तत्काल रोका जाना चाहिए।
केरल की धर्म यात्रा 1983-
1983 में केरल में धर्माचार्यों द्वारा "धर्म यात्रा" के नाम से एक यात्रा निकाली गई थी। इसमें दो यात्राएँ शामिल थीं: एक केरल के दक्षिणी सिरे से और दूसरी इसके उत्तरी सिरे से। इन रथों में क्रमशः देवी कन्याकुमारी और देवी मुकाम्बिका मंदिरों से प्राप्त दैवीय ज्योतियाँ (दिव्य ज्वालाएँ) स्थापित की गईं। इन रथों ने 25 दिनों में केरल के 14 जिलों की यात्रा की। यात्रा के दौरान, ये रथ विशेष रूप से हरिजन और गिरिजन बस्तियों से होकर गुजरे। संत-महात्मा नगरवासियों से प्रेम और स्नेह से मिले। उन्होंने न केवल इन भाइयों से मुलाकात की, बल्कि उन निवासियों द्वारा व्यक्तिगत रूप से तैयार और परोसे गए भोजन को भी खाया। उनके प्रेमपूर्ण स्नेहपूर्ण व्यवहार और निश्छल व्यवहार को देखकर संतों की आँखें नम हो गईं। केरल के इतिहास में शायद ये पहली बार हुआ कि संत उन लोगों के पास गये हों.
निम्नलिखित आँकड़े स्वयं यात्रा की उपयोगिता सिद्ध करते हैं:
- संत सहभागिता : 52
- तालुकाओं का पता लगाया गया: 52
- कवर किए गए स्थान: 798
- हरिजन-गिरिजन बस्तियाँ संपर्क: 58
- जनता की भागीदारी : 2,10,000
- आयोजित सार्वजनिक बैठकें : 60
- निकाले गए जुलूस : 24
- यात्रा की गई कुल दूरी: 7,000 किलोमीटर
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