पंडित दीनदयाल उपाध्याय संघ प्रचारक

मा. पं. दीनदयाल उपाध्याय:--संघनीव में विसर्जित पुष्प

(1916-1968) प्रखर चिंतक, एकात्म मानववाद के प्रणेता, जनसंघ के पूर्व अध्यक्ष

पं. दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 1916 को जयपुर-अजमेर रेलवे लाइन स्थित धनकिया नामक स्थान पर जन्म हुआ। वैसे पिता श्री भगवती प्रसाद उपाध्याय मथुरा जनपद के गाँव नगला चंद्रभान के निवासी थे। दीनदयाल अत्यंत मेधावी छात्र थे। वे मैट्रिक में अजमेर बोर्ड में प्रथम आए तथा इंटरमीडिएट में भी प्रथम स्थान पाकर दोनों स्वर्ण पदक प्राप्त किए। बी.ए. में प्रथम आने वाले एकमेव छात्र थे । वे एम.ए. में भी प्रथम रहे। दिसंबर, 1937 में दीनदयालजी एक बैठक के माध्यम से भाऊरावजी के संपर्क में आए। बैठक में प्रबुद्ध विद्यार्थी के नाते दीनदयालजी ने अनेक प्रश्न किए। भाऊरावजी ने यथोचित उत्तर भी दिए ।

जनवरी, 1938 में मकर संक्रांति को बाबासाहब आपटे विशेष रूप से उपस्थित थे। वहीं उत्सव में दीनदयालजी भी विद्यार्थी के रूप में उपस्थित थे। संपर्क बढ़ा, संघकार्य में प्रवत्ति हुई और तृतीय वर्ष की शिक्षा ली। शारीरिक में अनुत्तीर्ण रहे, पर बौद्धिक में सबसे प्रथम |

वर्ष 1942 में वे प्रचारक हुए। 1947 से 51 तक उत्तर प्रदेश के सहप्रांत प्रचारक रहे। वे पूजनीय गुरुजी की इच्छा से 1951 में डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी द्वारा भारतीय जनसंघ की स्थापना होने पर उसके महामंत्री नियुक्त किए गए, जिसे उन्होंने 1967 तक निभाया। बाद में उन्होंने भारतीय जनसंघ का अध्यक्ष पद सँभाला, पर सर्वथा पद प्राप्ति की अनिच्छा से । राजनीति में कार्य करके भी आदर्शों के प्रति ऐसी प्रतिबद्धता इतिहास रचनेवाली होती है। वे 'एकात्म मानववाद' के प्रणेता थे । उनका सरल व्यवहार एवं सादा जीवन था ।

लखनऊ से पटना की यात्रा में 10-11 फरवरी, 1968 की कालरात्रि में भारतीय राजनीति का यह ध्रुवतारा सदा-सदा के लिए विलीन हो गया, देशद्रोहियों के षड्यंत्र के फलस्वरूप ।

'वस्तुत: प्रत्येक राष्ट्र के लिए अपने 'स्व' का विचार करना आवश्यक होता है। स्वत्व के बिना स्वराज्य का कोई अर्थ नहीं होता। आखिर प्रत्येक राष्ट्र अपनी प्रकृति के अनुसार प्रयास करते हुए सुखी और संपन्न जीवन व्यतीत करने के लिए स्वतंत्रता की अभिलाषा रखता है। यदि हमने अपनी मूल प्रकृति की अवहेलना की तो हमारे राष्ट्र जीवन में अनेक विकृतियाँ उत्पन्न हो जाएँगी। हमारे राष्ट्र पर आज जो संकट है, उनका यही मुख्य कारण है।"

  - पं. दीनदयाल उपाध्याय

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