भगवान बुद्ध ने एक सेनापति को युद्ध करने के लिए कहां. बोधकथा
भगवान बुद्ध को अतिथि के रुप में एक राज्य के सेनापति ने उन्हें आमंत्रित किया। भगवान बुद्ध ने उनका आतिथ्य सहर्ष स्वीकार किया सेनापति प्रसन्न भाव से उनकी सेवा में लग गए और भगवान बुद्ध प्रेम भरें सेवा भाव से अतिव प्रसन्न हुए। सेनापति ने पूरे राज्य में समाचार फैलाया भगवान बुद्ध हमारे राज्य के अतिथि है, लोग उनके दर्शन के लिए आने लगे बहुत दिनों तक भगवान बुद्ध के सत्संग का लाभ उठाते रहे पूरे राज्य के लोग इतने खुश थे वे शब्दों में बयां नहीं कर सकते।
यह समाचार उस समय मिला जब पूरे राज्य में ख़ुशी का माहौल बना हुआ था भगवान बुद्ध उनके राज्यातिथि थें। यह समाचार वास्तव में बहुत ही भयानक था इस समाचार से सेनापति बहुत ही असमंजस में थें कि करें तो करें क्या एक और भगवान बुद्ध पूरे संसार को अहिंसा का संदेश दे रहे थे तो दूसरी और पड़ोसी राज्य उनके राज्य में हिंसा के लिए आक्रमण करने के लिए आ रहा सेनापति बहुत ही गहरी समस्या में उलझ गए और संकल्प किया कि मैं भगवान् बुद्ध के रहते हुए मैं अहिंसा का पालन करूंगा और युद्ध करने न मैं जाऊंगा और नहीं सेना को जानें दूंगा और मन ही मन प्रण कर लिया।
दूसरे दिन प्रातःकाल सेनापति भगवान बुद्ध कि सेवा में लग गए सेनापति उस दिन कुछ तनाव में लग रहें थें भगवान बुद्ध ने पूछा सेनापति जी आज़ आपके व्यवहार में कुछ परिवर्तन झलक रहा है क्या बात है।
सेनापति- नहीं नहीं भगवन् ऐसा कुछ नहीं है।
भगवान बुद्ध - सेनापति जी आज़ आप कुछ छुपा रहें हैं।
चूंकि भगवान बुद्ध बहुत ही सटीक आकलन कर लिया करते थे। उन्होंने कहा कोई समस्या दिखाई पड़ती है सेनापति जी
सेनापति ने कहा हां भगवन् समस्या बहुत ही गंभीर है।
क्या समस्या है तनिक बताइए.
भगवन् पड़ोसी राज्य हमारे राज्य पर आक्रमण करने आ रहा है मैं बहुत ही समस्या में घिरा हुआ हूं क्यूंकि आपके रहते मैं प्रतिकार कर हिंसा नहीं करना चाहता हूं क्योंकि पहले ही मैं बहुत लोगों और सेना की हत्याएं कर चुका हूं अब मैं यह पापा नहीं करना चाहता हूं।
भगवान बुद्ध मुस्कुराएं और कहा कि सेनापति आप इस राज्य के सेनानायक हैं और राज्य और प्रजा कि रक्षा करना आपका उत्तरदायित्व है आप राज्य के संरक्षक हैं, आपको रक्षा करने का अधिकार प्राप्त है।
सेनापति ने कहा यदि मैं युद्ध करूंगा तों मैं हत्या का दोषी माना जाऊंगा और आपने ही कहां है कि "अहिंसा परमो धर्म:"
तब भगवान बुद्ध ने कहा कि मैंने अहिंसा पर चलने का मार्ग समाज और अनुयायियों को दिया है किन्तु मैंने यह कभी नहीं कहा कि रक्षा करने का उत्तरदायित्व नहीं है। हर प्रणी को अपनी रक्षा का अधिकार है।
भगवान बुद्ध ने फिर कहा कि मैं समाज को सदमार्ग पर चलने को कहता हूं और अहिंसा का पालन करना सिखाता हूं किन्तु मैं यह कभी नहीं कहता हूं कि प्राणी को स्वयं कि आत्मरक्षा नहीं करनी चाहिए प्रतिकार स्वरुप करनी चाहिए।
भगवान बुद्ध कहते हैं
"अहिंसा परमो धर्म:
धर्म हिंसा तथैव च"
अहिंसा का पालन आवश्यक है परन्तु वह धर्म के लिए यदि हिंसा करना कर्तव्य है। इसलिए सेनापति तुम्हें अपने राज्य और प्रजा कि रक्षा करनी चाहिए जाओ और युद्ध करों इस युद्ध मैं भी अहिंसा परमो धर्म: कि शिक्षा दी जा सकती है।
सेनापति भगवान बुद्ध कि बातों से सहमत हुए और युद्ध कि तैयारी में लग गए सेनापति ने नई युद्ध कला को जन्म दिया और वह है। शारीरिक निपुणता मार्शल आर्ट यह युद्ध कला बहुत ही प्रभावी और नई थी। पहली बार युद्ध में किसी ने इस कला को देखा था इस युद्ध में नया हथियार मिला था और वह हथियार दूर दूर तक कला के रुप में पहचाना गया। यह युद्ध उस राज्य ने जीत लिया था किन्तु एक सीख अवश्य मिल गई थी कि धर्म के लिए हिंसा करना अधिकारिक कर्त्तव्य है।
भगवान बुद्ध ने एक बात और कहीं थी सेनापति से कि यदि तुम युद्ध नहीं करोंगे तो क्या तुन्हें प्रतिद्वंद्वी ऐसे ही छोड़ देगा।
सेनापति यदि युद्ध नहीं करोंगे तों सामने वाली सेना तुम्हारा सर्वनाश कर देंगी जो लोग मरेंगे जो दावानल बनकर तुम्हारे राज्य पर फुटेगा उसका पाप तुम्हारे सिर चढ़ेगा जो मारे जाएंगे उन सभी कि आह तुम्हें लगेंगी। भगवान बुद्ध कि वाणी में कठोरता थी किन्तु सत्य थी।
इसलिए अहिंसा का पालन शक्तिशाली करता है दुर्बल नहीं दुर्बल के प्रति सहानुभूति व्यक्त कि जाती और कुछ नहीं।
अहिंसा का अर्थ हिंसा को बढ़ावा देना नहीं है।

व्यक्तिगत चरित्र और राष्ट्रीय चरित्र
यदि कोई विशेष उदाहरण ही देना हो, तो गुजरात के राजा कर्ण के प्रधानमंत्री का दिया जा सकता है । वह वेद का ज्ञाता एवं अनेक कलाओं और शास्त्रों में पारंगत था। एक बार राजा ने अपनी कमजोरी के क्षण में एक सरदार की पत्नी का हरण कर लिया । इसपर प्रधानमंत्री गुस्से में आपे से बाहर हो गया और उसने राजा को इस पाप का दंड देने की प्रतिज्ञा की। उसे लगा कि उसकी पवित्रता और धर्म-ज्ञान को चुनौती दी गई है । उसने अपनी प्रतिज्ञा को पूर्ण करने के लिए कौन सा मार्ग अपनाया? वह जानता था कि गुजरात की उत्तरी सीमा पर मुस्लिम सेनाएँ खड़ी हैं। इसके पूर्व वे गुजरात को अधीन करने के लिए और उसे जीतने के लिए अनेकों निष्फल प्रयत्न कर चुके थे।
प्रधानमंत्री सीधा मुगल सुल्तान से मिलने दिल्ली गया और अपने राजा को उसके पापपूर्ण कार्यार्थ दंडित करने के लिए सुल्तान की मदद माँगी । शत्रु इस स्वर्णिम अवसर को पाकर अत्यंत प्रसन्न हुआ। राज्य की सुरक्षा के सभी भेदों को जाननेवाले प्रधानमंत्री के द्वारा दी गई बहुमूल्य जानकारी के साथ शत्रु ने गुजरात पर आक्रमण किया। इसके परिणामस्वरूप कर्णावती का शक्तिशाली हिंदू सीमांत प्रहरी-राज्य, जिसने अनेक वर्षों तक काफी सफलतापूर्वक मुस्लिम आक्रमण को दक्षिण तक फैलने से रोका था, का पतन हो गया । तत्पश्चात् केवल गुजरात ही नहीं, वरन् संपूर्ण दक्षिण भारत मुस्लिम लुटेरे आक्रमणकारियों के पैरों में झुक गया । अंततः इस सबसे उस प्रधानमंत्री को क्या मिला? निस्संदेह रूप से राजा मारा गया, पर उसी के साथ प्रधानमंत्री के हजारों निजी संबंधी भी तलवार के घाट उतार दिए गए। उसकी आँखो के सामने अगणित महिलाओं का शील भ्रष्ट किया गया, मंदिरों को धूल में मिला दिया और जिस घर में वह वेदों का पाठ और ईश्वर की आराधना करता था, उसे गाय काटने के बूचड़खाने में परिवर्तित कर दिया गया। इसके सिवाय आनेवाले अनेकों शतकों तक अपनी मातृभूमि के एक बड़े भू-भाग को पराधीनता प्राप्त हुई।
हम देखते हैं कि एक ओर तो राजा का व्यक्तिगत चरित्र कुछ पतित था, पर उसका राष्ट्रीय चरित्र प्रखर था । दूसरी ओर प्रधानमंत्री व्यक्तिगत चरित्र की दृष्टि से पावित्र्य से पूर्ण था, प्रकृति से ईश्वर- भीरु था, किंतु उसमें राष्ट्रीय चारित्र्य का अभाव था, जिससे व्यक्ति संपूर्ण राष्ट्र की भलाई किसमें है— यह सोच पाता है और अपना सब कुछ, यहाँ तक कि पवित्रता और न्यायपरायणता की उसकी व्यक्तिगत भावनाएँ भी, राष्ट्र कल्याण की वेदी पर त्याग देने के लिए प्रेरित होता है । इस प्रकार राजा और प्रधानमंत्री दोनों ही, जिसके लिए दोनों ही के मन में प्रेम था, उस राष्ट्र के महान दुर्भाग्य के कारण बने।
वास्तव में उस प्रधानमंत्री द्वारा व्यक्तिगत चारित्र्य एवं धर्म का प्रकट किया गया विकृत भाव हमारे इतिहास की एकाकी घटना नहीं है। यह भावना काफी गहराई तक बद्धमूल है और उसने इन शताब्दियों में राष्ट्रद्रोहियों की एक संपूर्ण जमात को उत्पन्न किया है। वह ईश्वर का 'धर्मात्मा' पुजारी ही था, जिसने कि उस महमूद गजनवी का मार्गदर्शन किया और उसे सहायता दी जो सोमनाथ को भ्रष्ट करने के घोषित उद्देश्य के साथ निकला था । औरंगजेब का प्रसिद्ध सरदार जयसिंह, जो शिवाजी को नष्ट करने आया था, एक विद्वान, प्रखर ईश्वर- भक्ति और बुद्धि एवं हृदय के अनेक सद्गुणों से युक्त था । किंतु शिवाजी के द्वारा स्वदेश और स्वधर्म के नाम पर की गई अनुरोधपूर्ण प्रार्थना एवं क्रूर विदेशियों का दास रहने की अपेक्षा उनके विरोध में राष्ट्रभक्त शक्तियों का नेतृत्व करने का आमंत्रण व्यर्थ गया। राजा जयसिंह अपनी ईश्वरभक्ति तथा 'सम्राट के प्रति स्वामिभक्ति' की शपथ से ही पूर्ण संतुष्ट था । ईश्वरभक्ति की धारणा तथा व्यक्तिगत ईमानदारी और स्वामिनिष्ठा की भावना का यह कितना विपर्यस्त और भयंकर स्वरूप था? यह स्पष्ट है कि जब चरित्र के दोनों ही पहलू अभिव्यक्त होते हैं, तभी व्यक्ति और समाज प्रगति करता है, पनपता है। वे मानो एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक पर राष्ट्र का चिह्न अंकित है और दूसरे पर उसका मूल्य । किसी भी एक का घिसना उसकी उपयोगिता को समाप्त कर देता है ।
बहुत पहले कहीं मिला था। आज ये तस्वीर देखते ही साझा करने की इच्छा कर गई।
बाज पक्षी अपने बचो को आसमान से क्यों फेक देता है
बाज पक्षी जिसे हम ईगल या शाहीन भी कहते है। जिस उम्र में बाकी परिंदों के बच्चे चिचियाना सीखते है उस उम्र में एक मादा बाज अपने चूजे को पंजे में दबोच कर सबसे ऊंचा उड़ जाती है। पक्षियों की दुनिया में ऐसी Tough and tight training किसी और की नही होती।
मादा बाज अपने चूजे को लेकर लगभग 12 Km ऊपर ले जाती है। जितने ऊपर अमूमन हवाई जहाज उड़ा करते हैं और वह दूरी तय करने में मादा बाज 7 से 9 मिनट का समय लेती है। यहां से शुरू होती है उस नन्हें चूजे की कठिन परीक्षा। उसे अब यहां बताया जाएगा कि तू किस लिए पैदा हुआ है ? तेरी दुनिया क्या है ? तेरी ऊंचाई क्या है ? तेरा धर्म बहुत ऊंचा है और फिर मादा बाज उसे अपने पंजों से छोड़ देती है।
धरती की ओर ऊपर से नीचे आते वक्त लगभग 2 Km उस चूजे को आभास ही नहीं होता कि उसके साथ क्या हो रहा है। 7 Kmt. के अंतराल के आने के बाद उस चूजे के पंख जो कंजाइन से जकड़े होते है, वह खुलने लगते हैं। लगभग 9 Kmt. आने के बाद उनके पंख पूरे खुल जाते है। यह जीवन का पहला दौर होता है जब बाज का बच्चा पंख फड़फड़ाता है।
अब धरती से वह लगभग 3000 मीटर दूर है लेकिन अभी वह उड़ना नहीं सीख पाया है। अब धरती के बिल्कुल करीब आता है जहां से वह देख सकता है अपने इलाके को। अब उसकी दूरी धरती से महज 700/800 मीटर होती है लेकिन उसका पंख अभी इतना मजबूत नहीं हुआ है की वो उड़ सके। धरती से लगभग 400/500 मीटर दूरी पर उसे अब लगता है कि उसके जीवन की शायद अंतिम यात्रा है। फिर अचानक से एक पंजा उसे आकर अपनी गिरफ्त मे लेता है और अपने पंखों के दरमियान समा लेता है।
यह पंजा उसकी मां का होता है जो ठीक उसके उपर चिपक कर उड़ रही होती है। और उसकी यह ट्रेनिंग निरंतर चलती रहती है जब तक कि वह उड़ना नहीं सीख जाता। यह ट्रेनिंग एक कमांडो की तरह होती है, तब जाकर दुनिया को एक बाज़ मिलता है अपने से दस गुना अधिक वजनी प्राणी का भी शिकार करता है।
हिंदी में एक कहावत है... "बाज़ के बच्चे मुँडेरों पर नही उड़ते....."
बेशक अपने बच्चों को अपने से चिपका कर रखिए पर उसे दुनियां की मुश्किलों से रूबरू कराइए, उन्हें लड़ना सिखाइए। बिना आवश्यकता के भी संघर्ष करना सिखाइए।
वर्तमान समय की अनन्त सुख सुविधाओं की आदत व अभिवावकों के बेहिसाब लाड़ प्यार ने मिलकर, आपके बच्चों को "ब्रायलर मुर्गे" जैसा बना दिया है जिसके पास मजबूत टंगड़ी तो है पर चल नही सकता। वजनदार पंख तो है पर उड़ नही सकता क्योंकि..
"गमले के पौधे और जमीन के पौधे में बहुत फ़र्क होता है।"
तरबूज के बीज
तरबूज के बीज गर्मी के दिन थे। हम पाँच छ: लोग परस्पर बैठे वार्ता कर रहे थे। इनमें से दो संघ के वरिष्ठ कार्यकर्त्ता थे। उनमें से एक भूतपूर्व यशस्वी प्राध्यापक भी थे। 'आज तो तरबूज खाया जाये' एक सज्जन ने कहा। सभी को बात जँच गई। पैसे जमा हुए तथा देखते-देखते कटे हुए तरबूज के लाल गूदे के बड़े-बड़े टुकड़े बर्फ के टुकड़ों में दबे थाली में सामने आ गए। सभी इन पर टूट पड़े। देखने में तरबूज लाल सुर्ख दानेदार थे। परन्तु ! धत् तेरे की। मजा किरकिरा हो गया' एक वरिष्ठ बन्धु के मुख से निकल पड़ा।
‘पैसे बेकार चले गये' दूसरे ने बात आगे बढ़ाई। 'खान अपना पैसा खाता है। हम तो भर पेट खाये बिना न रहेंगे।' सीमा प्रान्तीय बन्धु के प्रति हास्य मिश्रित व्यंग्य करते हुए तीसरे ने कहा। 'ठग गये। पैसा बेकार चला गया।' मैं भी बोल उठा। खिसियानी सी हँसी कमरे में गूँज उठी। हम सभी तरबूज खा रहे थे। खाते-खाते बीज निकालकर एक ओर रख देते थे। बीजों की दुर्दशा देखकर प्राध्यापक महोदय से न रहा गया।
'इन बेचारे बीजों की यह दुर्दशा? रेत से पानी निकालना आज भी कल्पना की वस्तु बनी हुई है। करोड़ों रुपया बर्बाद हो गया। परन्तु आज तक कोसों दूर हूँ। विज्ञान के प्राध्यापक बोल उठे। परन्तु कैसा विलक्षण है यह बीज? यह रेत से पानी ही नहीं मीठा शीतल शर्बत निकालकर हमारी प्यास बुझाता है?'-वरिष्ठ बन्धु बोल उठे।
'कितनी मूल्यवान है यह मशीन, जिसे हम निकालकर यूँ ही फेंक दे रहे हैं।' तीसरे ने कहा।
साधक का मुखमण्डल चमक उठा। आनन्दयुक्त मुद्रा से मेरी ओर देखकर वे बोल उठे, 'तुम लोग तो आचार्य ठहरे। बालक के अन्दर छिपे सुप्त देवत्व को समाज की मिठास बनाकर प्रगट करना ही तो तुम लोगों का काम है? तुम्हारे सहयोगियों में कितने हैं ऐसे जो इस सामान्य से बीज से अधिक उपयोगी हैं।
'काश! हम तरबूज के बीज के बराबर ही क्यों न हो, समाज को अपनी उपयोगिता तो अनुभव करा पाते।
जिन्दगी जीनें का मन हुआ
एक लम्बे समय के इंतजार के बाद आखिरकार वो दिन आ ही गया, जब अम्मा ने अपनी जिंदगी जीने के बारे में विचार किया| सच आज मुझसे अधिक प्रसन्न कोई नहीं होगा, आज मुझे ऐसा लगा कि एक पोती तथा मनोवैज्ञानिक के रूप में, मैं स्वयं को शुद्ध कर पाई|
जिंदगी के प्रत्येक पड़ाव पर अम्मा ने अपना परिवार चुना- कभी बहू बनकर, कभी जीवनसंगिनी बनकर, कभी जेठानी बनकर, कभी देवरानी बनकर, कभी भाभी बनकर, कभी माँ बनकर, कभी सास बनकर, कभी दादी बनकर| परंतु अंत में उनके हाथ आया अपमान का काल कूट तथा बिछौह|
मुझे याद है उनका वह डरा हुआ चेहरा, जैसे डरती हों अपनी किस्मत के विकराल रूप से| अपने जिस परिवार को उन्होंने अपनी जिंदगी की लम्बी अवधि समर्पित कर दी| उन्हें ऐसा प्रतीत होता है कि आज वह परिवार उन्हें बस एक लाचार असहाय बेवा की चादर में देखता है| दादा के जाने के पश्चात उनकी जिंदगी शून्य हो गई, वह विचारधाराओं में ऐसी जकड़ गई कि कुछ भी ना उन्हें दिखाई देता था और ना ही उन्हें समझ आता था, परंतु आज मेरी अम्मा वह लाचार, असहाय रूप में खुद को प्रतिशत नहीं करना चाहती हैं| वह पढ़ना चाहती हैं लिखना चाहती हैं, किसी किसी दिन मुझे यूँ लिखता देख कर वह एक नन्हें शिशु की भांति लिखना का प्रयास करती हैं, पूरा दिन राम-राम लिखती हैं| उन्हें लगता है यह भक्ति पर सत्य ज्ञान अर्जित करना भी तो भक्ति है|
उन्हें सदैव यही लगा कि स्त्रियों का जीवन सिर्फ परिवार में समटा हुआ है और उनके भाग्य में परमेश्वर ने यही लिखा है| उनका यह सोचना भी उचित था कदाचित इसलिए क्योंकि उन्होंने यही देखा और सीखा अपनी माँ से, सास से, समाज से| हमें कभी ज्ञात नहीं होता कि हमसे कौन सीख रहा होता है परंतु हम से कोई न कोई अवश्य सीख रहा होता है हमें देख कर| जीवन का अंतिम पड़ाव बड़ा कठिन होता है मैं जानती हूँ परँतु क्या इस पड़ाव का हम आनंद नहीं उठा सकते हैं?
मन में दबे कुछ अधूरे सपने हम आज पूरे नहीं कर सकते हैं? हर वस्तु कि एक अंतिम तारीख तय होती है, हमारे सपनों की कोई आखिरी तारीख नहीं होती है| बचपन का सपना अगर आज पूरा हो तो
तुलसी माला की महिमा
एक सत्य घटना
राजस्थान में जयपुर के पास एक इलाका है – लदाणा। पहले वह एक छोटी सी रियासत थी। उसका राजा एक बार शाम के समय बैठा हुआ था। उसका एक मुसलमान नौकर किसी काम से वहाँ आया। राजा की दृष्टि अचानक उसके गले में पड़ी तुलसी की माला पर गयी। राजा ने चकित होकर पूछाः
"क्या बात है, क्या तू हिन्दू बन गया है ?"
"नहीं, हिन्दू नहीं बना हूँ।"
"तो फिर तुलसी की माला क्यों डाल रखी है ?"
"राजासाहब ! तुलसी की माला की बड़ी महिमा है।"
"क्या महिमा है ?"
"राजासाहब ! मैं आपको एक सत्य घटना सुनाता हूँ। एक बार मैं अपने ननिहाल जा रहा था। सूरज ढलने को था। इतने में मुझे दो छाया-पुरुष दिखाई दिये, जिनको हिन्दू लोग यमदूत बोलते हैं। उनकी डरावनी आकृति देखकर मैं घबरा गया। तब उन्होंने कहाः
"तेरी मौत नहीं है। अभी एक युवक किसान बैलगाड़ी भगाता-भगाता आयेगा। यह जो गड्ढा है उसमें उसकी बैलगाड़ी का पहिया फँसेगा और बैलों के कंधे पर रखा जुआ टूट जायेगा। बैलों को प्रेरित करके हम उद्दण्ड बनायेंगे, तब उनमें से जो दायीं ओर का बैल होगा, वह विशेष उद्दण्ड होकर युवक किसान के पेट में अपना सींग घुसा देगा और इसी निमित्त से उसकी मृत्यु हो जायेगी। हम उसी का जीवात्मा लेने आये.
राजासाहब ! खुदा की कसम, मैंने उन यमदूतों से हाथ जोड़कर प्रार्थना की कि 'यह घटना देखने की मुझे इजाजत मिल जाय।' उन्होंने इजाजत दे दी और मैं दूर एक पेड़ के पीछे खड़ा हो गया। थोड़ी ही देर में उस कच्चे रास्ते से बैलगाड़ी दौड़ती हुई आयी और जैसा उन्होंने कहा था ठीक वैसे ही बैलगाड़ी को झटका लगा, बैल उत्तेजित हुए, युवक किसान उन पर नियंत्रण पाने में असफल रहा। बैल धक्का मारते-मारते उसे दूर ले गये और बुरी तरह से उसके पेट में सींग दिया और वह मर गया।"
राजाः "फिर क्या हुआ ?"
नौकरः "हजूर ! लड़के की मौत के बाद मैं पेड़ की ओट से बाहर आया और दूतों से पूछाः'इसकी रूह (जीवात्मा) कहाँ है, कैसी है ?"
वे बोलेः 'वह जीव हमारे हाथ नहीं आया। मृत्यु तो जिस निमित्त से थी, हुई किंतु वहाँ हुई जहाँ तुलसी का पौधा था। जहाँ तुलसी होती है वहाँ मृत्यु होने पर जीव भगवान श्रीहरि के धाम में जाता है। पार्षद आकर उसे ले जाते हैं।'
हुजूर ! तबसे मुझे ऐसा हुआ कि मरने के बाद मैं बिहिश्त में जाऊँगा कि दोजख में यह मुझे पता नहीं, इसले तुलसी की माला तो पहन लूँ ताकि कम से कम भगवान नारायण के धाम में जाने का तो मौका मिल ही जायेगा और तभी से मैं तुलसी की माला पहनने लगा।'
कैसी दिव्य महिमा है तुलसी-माला धारण करने की ! इसीलिए हिन्दुओं में किसी का अंत समय उपस्थित होने पर उसके मुख में तुलसी का पत्ता और गंगाजल डाला जाता है, ताकि जीव की सदगति हो जाय।..
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