खालसा फौज के कमांडर-इन-चीफ महान योद्धा रणबांकुरा "पण्डित दीवान चन्द मिश्र" एवं राव महाराजा बख्तावरसिंह 1857 के स्वतंत्रता के अग्रणी वाहक .


खालसा फौज के कमांडर-इन-चीफ महान योद्धा रणबांकुरा 

पण्डित दीवान चन्द मिश्र :- 

पण्डित दीवान चंद मिश्र  महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल के ऐसे शक्तिशाली/योद्धा सेनापति थे जिन्होंने मुल्तान और काश्मीर पर विजय प्राप्त करने वाली सेनाओं के चीफ-ऑफ-आर्टिलरी और कमांडर-इन-चीफ के पद से ले कर, 1816 से 1825 तक खालसा सेना के कमांडर-इन-चीफ के पद में भी काम किया।

    पण्डित दीवान चन्द मिश्र महाराजा रणजीत सिंह के लाहौर दरबार के आधार स्तंभो में से एक थे।

    पण्डित दीवान चंद गोंदलनवाला गाँव (वर्तमान में गुजरांवाला , पाकिस्तान ) के एक ब्राह्मण दुकानदार के पुत्र थे।

    पण्डित दीवान चंद जी की बहादुरी से प्रसन्न हो महाराजा रणजीत सिंह की ने से जफर-जंग-बहादुर (युद्धों के विजेता) की उपाधि से सम्मानित किया गया था । 

    पण्डित दीवान चंद जी को 1816 में आर्टिलरी चीफ के पद से खालसा सेना के मुख्य कमांडर के पद पर पहुंचे। उन्होंने मीठा तिवाना के टीवाना नवाब के विद्रोह को दबा दिया और उन्हें महाराजे के आगे श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए मजबूर किया। 

    पण्डित जी ने 1818 में मुल्तान फतह कर उसपर कब्जा किया और युद्ध मे  मुजफ्फर खान और उनके सात बेटे को मार गिराया।

    1819 में, उन्होंने काश्मीर क्षेत्र में शोपियां के लिए युद्ध अभियान का नेतृत्व किया और इस युद्ध मे दुर्रानी (अफगान) के गवर्नर जब्बार खान को हरा दिया। उन्होंने कुछ ही घंटों में अफगानों को हरा कर घुटनो के बल ला दिया।

    1821 में मनकेरा ( वर्तमान मनकेरा तहसील ) को फतह कर अपने अधिकार में लिया और फिर बटाला, पठानकोट, मुकेरियां, अकालगढ़ आदि पर भी विजय प्राप्त की।

    पंडित जी ने पेशावर और नौशेरा की युद्धो में भी भाग लिया औऱ फतह हासिल की।

    महाराजा रणजीत सिंह के सेना नायकों में से एक 

    महाराजा रणजीत सिंह का अपने इस योद्धा सेनापति के प्रति इतना सम्मान और प्रेम था कि एक बार अमृतसर में, महाराजा ने एक  व्यापारी से एक बहुत कीमती हुक्का खरीदा था (हालांकि यह उनके अपने पंथ के निषेध के खिलाफ था) महाराजे ने उच्च सम्मान के चिह्न पर मिश्र दीवान चंद जी को हुक्का भेंट किया, और उन्हें धूम्रपान करने की भी अनुमति दी गई थी। 

    महाराजा के साम्राज्य के निर्माण में पंडित दीवान चंद मिश्र के योगदान को पंथक और ब्रिटिश इतिहासकारों ने भी कम करके लिखा है, जिन्होंने उन्हें "हुक्का पीने वाला जनरल" बताया है। 

    वे सच मे लाहौर दरबार के आधार स्तम्भो में से एक ऐसे महान योद्धा, सेनापति थे जिनको खुद महाराजा रणजीत सिंह ने फतेह-ओ-नुसरत-नसीब (जो कभी युद्ध में नहीं हारा) और जफर-जंग-बहादुर (युद्धों में विजेता) की उपाधि प्रदान की और उन्हें कश्मीर का राज्यपाल बनाया गया।

    राव महाराजा बख्तावरसिंह  1857 के स्वतंत्रता के अग्रणी वाहक ..

    राव महाराजा बख्तावरसिंह 1857 स्वतंत्रता संग्राम के निस्वार्थ सेवा से देश कि आजादी के लिए वीर गति को प्राप्त कर गए। एक शांत रियासत होते हुए भी अंग्रेजों के विरुद्ध मौर्चा खोला सबकुछ लुटा दिया।

    1857 की  क्रांति में मालवा क्षेत्र के नायक  अमर शहीद राणा बख्तावर सिंह  तथा  उनके सहयोगी  बलिदानियों को श्रद्धांजलि। नमन। आज राणा बख्तावर सिंह जी की जन्म जयंती है। इंदौर के आजादी के परवाने

    आजादी के महासंग्राम में इंदौर से 1857, 1942 और 1947 में 39 दीवानों ने जान गंवाई।
    1857 शिवदीन, जियालाल, भान सिंह, खेखलाल, हसन खां, गंगादीन, हंसराज, मीणा, सेवकराम, सुरजीत, शंकर, कृपाराम, गंगादीन, पूरन, जेवन सिंह, किशन, गयादीन, पूरन सिंह, खंडू शामिल रहे।
    सुखराम, रामचंद्र, घासीराम, शीतलसिंह, सेवाराम, लालसिंह, सोस, पंचम, देवा, रामलाल, सुखलाल को निशाना बनना पड़ा। सूबेदार सआदत खां, बंसगोपाल, भागीरथ सिलावट, राजा बख्तावर सिंह, रघुनंदन को फांसी दे दी।
    1941 अनंत लक्ष्मण कनेरे, दुर्गा, रामनारायण मूजर और रमुआ को में फांसी पर चढ़ा दिया गया।

    उल्लेखनीय है 1857 की क्रांति के जनक शहीद भागीरथ सिलावट को 23 अक्टूबर 1857 को देपालपुर में फांसी पर चढ़ाया गया था। जिनकी प्रतिमा नगर परिषद द्वारा चमन चौराहे पर स्थापित की गई है।

    साकार क्रांति का उपासक 

    हवा, पानी और धूप से सींचे गए पेड़ों को फलते-फूलते तो सबने देखा है, मगर क्या किसी ने लहू से सींचा कोई पेड़ देखा है? देखना चाहते हैं तो एमवाय अस्पताल परिसर से लगे केईएच कंपाउंड में जाइए। वहां 200 साल से भी पुराना नीम का विशाल पेड़ आज भी हरा-भरा है। इसे 158 साल पहले 10 शहीदों ने अपने खून से सींचा था।ये कहानी उन रणबांकुरों की है जो आजादी की लड़ाई में शहीद हो गए। 1857 में हुई आजादी की पहली क्रांति के समय अंग्रेजों के खिलाफ पूरे देश में कई रियासतों ने भी बगावत की थी। उसी दौरान मध्यभारत और मालवा-निमाड़ में भी किशोरों, युवाओं और बुजुर्गों से लेकर महिलाओं तक ने आजादी की खातिर अंग्रेजों से लड़ाई की। दुर्भाग्यवश वह क्रांति पूरी तरह सफल नहीं हो पाई और अंग्रेजों ने रियासतों में फूट डालकर उसे दबा दिया।इस पूरी लड़ाई का साक्षी रहा नीम का यह पेड़ 158 साल बाद भी जिंदा है। इसी पेड़ पर अंग्रेजों ने दस क्रांतिकारियों को फांसी दे दी थी। नीम का ये विशाल पेड़ केईएच कंपाउंड में है और आज भी उतनी ही खामोशी से खड़ा है, मानो अब तक शहीदों को फांसी देने के अपराधबोध में हो।इसी पेड़ के हिस्से क्यों आया श्राप?ये नीम के इस पेड़ का दुर्भाग्य था कि इसे क्रांतिकारियों को फांसी देने के लिए चुना गया। आईनेक्स्ट ने इस बात की पड़ताल की कि अंग्रेजों ने यही पेड़ क्यों चुना तो पता चला कि उस समय मौजूद पेड़ों में ये सबसे ऊंचा पेड़ था। इसकी मोटी, मजबूत शाखाएं बाहर की ओर निकली हुई थीं, जिन पर आसानी से फंदा लटकाया जा सकता था। ये बात कहीं इतिहास में दर्ज तो नहीं, लेकिन किंवदंतियों के रूप में आगे बढ़ने वाले अलिखित इतिहास का हिस्सा है।राणा बख्तावर सिंहधार के पास अमझेरा रियासत के राजा राणा अजीतसिंह के पुत्र, जिनका जन्म 1824 में हुआ। जब वे महज 8 साल के थे तब 1831 में पिता अजीतसिंह की मृत्यु हो गई। कुछ सालों बाद नाबालिग होते हुए भी उन्हें रियासत की गद्दी संभालना पड़ी। गद्दी संभालने के कुछ सालों बाद 1857 की क्रांति हुई तब क्रांतिकारी तात्या टोपे ने धार जिले के कुक्षी में मालवा-निमाड़ के राजाओं की गोपनीय बैठक बुलाई। उसमें तय हुआ कि सब मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ लड़ेंगे। लड़ने को तैयार राजाओं में युवा राजा बख्तावरसिंह भी थे। जब अंग्रेजों से लड़ाई का समय आया तो अन्य रियासतों के राजा पीछे हट गए, मगर बख्तावरसिंह अपनी सेना के साथ अंग्रेजों से कड़ा मुकाबला किया और उन्हें कई इलाकों से खदेड़ दिया। दुर्भाग्य रहा कि अन्य राजाओं के साथ न देने के कारण अंग्रेजों ने ये क्रांति आसानी से कुचल दी और राणा बख्तावरसिंह व साथी लड़ाकों को बंदी बना लिया। बाद में अन्य रियासतों को कड़ा संदेश देने के लिए अंग्रेजों ने इन क्रांतिकारियों को खुलेआम इसी नीम के पेड़ पर फांसी दी।लड़ाई में भी नहीं छोड़ी नैतिकताराणा बख्तावरसिंह एक बलशाली लड़ाके थे लेकिन उनके भीतर एक संवेदनशील इंसान भी था। उनके वंशज और वर्तमान में इंदौर हाईकोर्ट में एडवोकेट टिकेन्द्रशरण सिंह बताते हैं जब राणा बख्तावरसिंह और उनके लड़ाकों ने अंग्रेजों को खदेड़ा, तब अंग्रेज सैनिकों के साथ उनकी पत्नियां और बच्चे भी जान-बचाकर भाग रहे थे। तब राणा ने राजगढ़ के पास छड़ावद में रहने वाले रिश्तेदारों को ये जिम्मेदारी सौंपी कि अंग्रेजों की महिलाओं और बच्चों को सुरक्षित बाहर निकाला जाए। उनके साथ कहीं किसी तरह की बदसलूकी तक न की जाए। इतिहास में दर्ज ये किस्सा बताता है कि एक हिंदू राजा ही इतना संवेदनशील हो सकता है।इन लड़ाकों ने भी दी जान सेनापति को 

    कुंवर भवानीसिंह : -

    राणा बख्तावरसिंह के सेनापति थे। ये तत्कालीन गांव सन्दला के निवासी थे और आखिरी सांस तक राजा के साथ रहे।

    दीवान गुलाबराय : -

    ये राणा बख्तावरसिंह के दीवान यानी सलाहकार थे। चूंकि राजा ने नाबालिग रहते हुए ही गद्दी संभाल ली थी इसलिए गुलाबरायजी उन्हें राजकाज में सलाह देते थे।सलूकराम पटवारी : रियासत के पटवारी थे और भू-बंदोबस्त से लेकर जमीन संबंधी काम देखते थे। जब लड़ाई छिड़ी तो तलवार थामी और अंग्रेजों को खूब खदेड़ा।

    कामदार मोहनलाल : -

    राजमहल के कामदार थे। इतिहास गवाह है जरूरत पड़ी तो इन्होंने आजादी की लड़ाई थी लड़ी।

    वकील चिमनलाल : -

    राणा बख्तावरसिंह के वकील और कानूनी मामलों से लेकर अन्य रियासतों से होने वाले विवादों, उनके निपटान व रियासत के अंदरूनी मामलों में सलाह देते थे।सेवक मंशाराम : मंशाराम राजा बख्तावरसिंह के बेहद करीबी सेवक थे।नगाड़ावादक फकीर : देवास-इंदौर के बीच गांव डकाच्या के रहने वाले फकीर, रियासत में नगाड़ा बजाते थे। मौका आया तो युद्ध के मैदान में तलवारें भी खूब बजाईं।

    शाह रसूल खां, वशीउल्ला खां, जमादार अता मोहम्मद, मुंशी नसरुल्ला खां : 

    अमझेरा रियासत में अलग-अलग काम देखने वाले इन क्रांतिकारियों ने भी आजादी का सपना देखा था। आखिरकार अंग्रेजों ने इन्हें भी फांसी दे दी।

    गुल खां तोपची : -

    राणा बख्तावरसिंह की रियासत की रक्षा का जिम्मा गुल खां पर ही था। ये रियासत के तोपची थे इसलिए अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में ये निर्णायक भूमिका में थे।सिपाही हीरासिंह : अमझेरा रियासत की सेना के सिपाही थे। इन्होंने खूब जांबाजी से लड़ाई लड़ी और शहीद हुए।पत्नी ने भी दिया बलिदानराणा बख्तावरसिंह ही नहीं उनकी पत्नी भी क्रांतिकारी और आजादी पसंद थीं। राजा के वंशज अनूपनगर निवासी श्री सिंह बताते हैं 'उनकी पत्नी रानी दौलतकुंवर गुजरात के मानसा की रहने वाली थीं। वे इतनी बहादुर थी कि जब अंग्रेजों के खिलाफ झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने युद्ध छेड़ा तो रानी दौलतकुंवर ने भी उनका साथ दिया। इतिहास कहता है कि रानी दौलतकुंवर भी रानी लक्ष्मीबाई के साथ ही वीरगति को प्राप्त हुई थीं।'2002 में लगी प्रतिमाराणा बख्तावर के शौर्य की कहानी सदियों तक जीवंत रहे, इसलिए उसी पेड़ के नीचे उनका स्मारक बनाया गया है, जहां उन्हें व उनके लड़ाकों को फांसी दी गई थी। 2000 के आसपास पद्मश्री कुट्टी मेनन और एमजीएम मेडिकल कॉलेज के डॉ. मनोहर भण्डारी ने इस पेड़ के नीचे स्मारक बनाकर क्रांतिकारियों की यादों को सहेजने का संकल्प लिया। तभी राजपूत क्लब ने भी इन शहीदों को अपना वंशज मानते हुए स्मारक बनाने की योजना बनाई। आखिरकार 2002 में स्मारक तैयार हुआ और राणा बख्तावरसिंहजी की प्रतिमा स्थापित की गई। उनके वंश की जड़ें भी जोधपुर रियासत से जुड़ी होने के कारण अनावरण के लिए जोधपुर के पूर्व महाराजा गजसिंह को बुला था। तबसे हर साल 10 फरवरी को यहां शहीदों को श्रद्धांजलि दी जाती है।ये इंदौर के लिए गर्व की बात है कि यहां की मिट्टी में पैदा हुए रणबांकुरों ने आजादी की लड़ाई लड़ी। एमवाय अस्पताल परिसर में स्थित नीम के उस पेड़ में शहीदों की यादें बसी हुई हैं। वो महज एक पेड़ नहीं बल्कि एक पूरा इतिहास है। 

    न झुका..., न रुका..., अमर शहीद महाराणा बख्तावर सिंह

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    अमर शहीद महाराणा बख्तावर सिंहमध्य प्रदेश के धार जिले के अमझेरा कस्बे के अमर शहीद महाराणा बख्तावर सिंह को मालवा क्षेत्र में विशेष रूप से नमन किया जाता है। मालवा की धरती पर प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों से मुकाबला करने वाले वह ऐसे नेतृत्वकर्ता थे जिन्होंने अंग्रेजों की सत्ता की नींव को कमजोर कर दिया था। उन्होंने राजशाही में जीने वाले लोगों को भी देश के लिए बलिदान देने की प्रेरणा दी। लंबे संघर्ष के बाद छलपूर्वक अंग्रेजों ने उन्हें कैद कर लिया। 10 फरवरी 1858 में इंदौर के महाराजा यशवंत चिकित्सालय परिसर के एक नीम के पेड़ पर उन्हें फांसी पर लटका दिया। 

    इस महान बलिदानी की प्रेरणा से आदिवासी अंचल के कई सैकड़ों लोगों ने अपने प्राण देश की खातिर त्याग दिए थे। मध्यप्रदेश सरकार ने अमझेरा स्थित राणा बख्तावर सिंह के किले को राज्य संरक्षित इमारत घोषित किया है।

    स्वतंत्रता संग्राम के महान योद्धा बख्तावर सिंह का जन्म अमझेरा के महाराजा अजीत सिंह एवं महारानी इन्द्रकुंवर की संतान के रूप में 14 दिसम्बर सन् 1824 को हुआ था। पिता महाराव अजीत सिंह की मृत्यु के पश्चात 21दिसंबर 1831 में मात्र सात वर्ष की आयु में राव बख्तावर सिंह सिंहासनारूढ़ हुए। इंदौर से शिक्षा समाप्ति के पश्चात बख्तावर सिंह स्थायी रूप से अमझेरा लौट आए।

    सन् 1856 में अंग्रेजों को संपूर्ण मालवा एवं गुजरात से बाहर खदेड़ने के उद्देश्य से अंग्रेजों के विरुद्ध सामूहिक क्रान्ति की योजना तैयार की थी। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में अमझेरा के राजा बख्तावर सिंह ही एकमात्र ऐसे योद्धा रहे हैं जिन्होंने मालवा क्षेत्र में अंग्रेजों के खिलाफ बगावत का बिगुल फूंका था। अमझेरा की ब्रिटिश विरोधी तैयारियों की भनक अंग्रेजों को मिलने से उन्होंने समीपस्थ भोपावर एवं सरदारपुर में अपनी सैन्य छावनियां कायम कर ली थी।

    अमझेरा की सेना ने सर्वप्रथम 2 जुलाई 1857 को अंग्रेजों के विरुद्ध क्रान्ति का शंखनाद किया। इस दिन महाराव बख्तावर सिंह के मार्गदर्शन में अमझेरा के क्रान्तिकारियों ने दो तोपें, बंदूकें, पैदल सैनिक, अश्व सैनिकों ने ब्रिटिश छावनी भोपावर की ओर कूच किया। अमझेरा की जनता ने स्वतंत्रता के दीवाने सैनिकों का पलक पावड़े बिछाकर मंगल आरती की तथा विजय पथ पर विदा किया। क्रांतिसेना रात 10 बजे भोपावर के पास पहुंच गई लेकिन रात्रि में आक्रमण उचित न समझकर पौ फटने का इंतजार करने लगी। 3 जुलाई की सुबह अमझेरा की सेना ने जब भोपावर छावनी में प्रवेश किया तो एक भी अंग्रेज अधिकारी या सैनिक से सामना नहीं हुआ। क्रांतिकारियों ने बचे हुए कर्मचारियों को अपने कब्जे में लेकर समस्त शासकीय रिकार्ड जला डाला, शस्त्रागार-कोषागार को लूटकर यूनियन जेक झंडा उतारकर फाड़ डाला।

    महाराजा बख्तावर सिंह द्वारा प्रज्ज्वलित स्वाधीनता संग्राम की ज्वाला अब एक भीषण अग्नि का रूप धारण कर महू, आगर, नीमच, महिदपुर, मंडलेश्वर आदि सैन्य छावनियों में फैल गई। वहां के सैनिक भी अमझेरा के राजा के समर्थन में विद्रोह को तैयार हुए जिससे मालवा क्षेत्र में ब्रिटिश सत्ता की प्रतिष्ठा को गहरा सदमा पहुंचा।

    अमझेरा के राजा की गतिविधियों को रोकने के लिए अंग्रेजों ने सर्वप्रथम 31 अक्टूबर 1857 को धार किले पर आक्रमण कर उसे अपने कब्जे में ले लिया। 5 नवंबर 1857 को कर्नल डूरंड ने अमझेरा पर आक्रमण करने की योजना बनाई लेकिन ब्रिटिश सेना में अमझेरा की क्रांतिसेना के आतंक व दबदबे के कारण यह सेना आगे नहीं बढ़ी तो भोपावर से भाग खड़े हुए। हालांकि बाद में लेफ्टिनेन्ट हचिन्सन के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना की एक पूरी बटालियन 8 नवम्बर 1857 को अमझेरा भेजी गई।

    उधर, धार में रुके कर्नल डूरण्ड को भी बख्तावर सिंह के लालगढ़ में होने की सूचना प्राप्त हो चुकी थी। वह जानता था कि बख्तावर सिंह को सीधे गिरफ्तार करना खतरे से खाली नहीं है अतः उसने चाल चलकर अमझेरा रियासत के एक-दो प्रभावशाली लोगों को जागीर का लालच देकर उनके माध्यम से बख्तावर सिंह को संधिवार्ता के लिए धार लाने के लिए लालगढ़ भेजा। इन मध्यस्थों ने भोले भाले अमझेरा नरेश को अनेक प्रकार से भ्रमित कर अंग्रेजों से संधिवार्ता करने धार चलने के लिए राजी कर लिया।

    11 नवम्बर 1857 को अपने सैनिकों के मना करने के बाद भी यह मालव वीर अंग्रेजों के फैलाए जाल में फंसकर 12 विश्वसनीय अंगरक्षकों के साथ लालगढ़ किले से निकले। रास्ते में इन्हें योजनाबद्ध तरीके से हैदराबाद कैवेलरी की घुड़सवार टुकड़ी ने रोक लिया। अंगरक्षकों के विरोध के बाद भी इन्हें गिरफ्तार कर 13 नवम्बर 1857 को महू भेज दिया। राघोगढ़ (देवास) के ठाकुर दौलत सिंह को जब बख्तावर सिंह की धोखे से गिरफ्तारी की सूचना मिली तो उन्होंने महू छावनी पर आक्रमण कर अमझेरा नरेश को छुड़वाने का प्रयास किया लेकिन इसमें उन्हें सफलता नहीं मिली। ब्रिटिश अधिकारियों ने निर्णय लिया कि अमझेरा नरेश को महू रखने से क्रांतिकारियों के चौतरफा हमले हो सकते हैं और वे इन्हें मुक्त करवाने की हरसंभव कोशिश करेंगे अतैव महू से बख्तावरसिंह को इन्दौर भेज दिया गया।

    महाराजा बख्तावर सिंह को इन्दौर जेल में बन्द रखकर घोर यातनाएं दी गई। अंग्रेजों ने उनके साथ राजोचित व्यवहार नहीं किया। कुछ दिनों तक तो उनकी सेवा में एक-दो नौकर लगाए गए थे लेकिन बाद में उन्हें भी हटा लिया गया। बिछौना बिछाने और पानी पीने का काम स्वयं अमझेरा नरेश को अपने हाथों से करना पड़ता था। भारत की आजादी के इतिहास में अमझेरा के राजा ही एक मात्र ऐसे राजा रहे हैं जिन्हें अंग्रेजों ने कैद के दौरान घोर यातनाएं देकर झुकाना चाहा लेकिन यह वीर नहीं झुका।

    21 दिसम्बर 1857 को इन्दौर रेजिडेन्सी में ग्वालियर, इन्दौर, देवास, धार, दतिया, बुंदेलखंड आदि राज्यों के वकीलों की उपस्थिति में कार्रवाई हुई। अमझेरा नरेश ने अपने बचाव का कोई भी प्रयास नहीं किया और न ही अपनी ओर से अपने पूर्वजों की अंग्रेजों के प्रति वफादारी प्रकट की।

    राबर्ट हेमिल्टन बख्तावर सिंह को असीरगढ़ के किले में एक बंदी की हैसियत से भेजने का निर्णय ले चुके थे लेकिन फरवरी 1858 के प्रथम सप्ताह में ब्रिटिश सत्ता के गलियारों में यह हवा गर्म होने लगी कि अमझेरा के राजा को फांसी होगी। 10 फरवरी 1858 को अमझेरा नरेश को अलसुबह इंदौर में फांसी दे दी गई।

    स्वतंत्रता के लिए वलिदान हुए राणा बख्तावर सिंह जी को उनकी जन्म जयंती पर कोटि-कोटि नमन ..

    जब-जब भारतभूमि पर बाहरी आक्रांताओं ने आक्रमण किया है, जब-जब सनातनी संस्कृति पर हमला करने का प्रयास किया गया है, तब-तब सिख गुरुओं ने सनातन समाज का नेतृत्व कर विधर्मियों का सामना किया और परिस्थितियों के विषम होने पर अपने प्राणों की आहुति देने से भी गुरेज नहीं किया। यही कारण है कि सिर्फ सिख समाज ही नहीं, बल्कि सनातन संस्कृति के प्रत्येक शाखाओं के बीच सिख गुरुओं को लेकर अनन्य आस्था है।

    सिख गुरुओं ने मातृभूमि की सेवा और धर्म की रक्षा के लिए जिस प्रकार से सर्वस्व न्यौछावर किया, ठीक उसी प्रकार उनके परिजनों और अनुयायियों ने भी बलिदान दिया।

    लेकिन सिख समाज सहित संपूर्ण भारतीय इतिहास में 20 दिसंबर से लेकर 29 दिसंबर की तिथि एक कभी ना भूले जानी वाली तारीख है, जिस दौरान दशम गुरु के साहिबजादों समेत उनके परिजनों एवं सिखों के एक बड़े जत्थे ने धर्म रक्षा के लिए अपना सर्वोच्च बलिदान दिया था।


    यह पूरा सप्ताह (20 दिसंबर से 27 दिसंबर) साहिबजादों के शहीदी 

    युद्धरत गुरु गोविन्द सिंह जी के साहिबजादे चमकौर के युद्ध में 
     
    सप्ताह के रूप में मनाया जाता है, जिसमें पूरा देश कृतज्ञता के भाव के साथ गुरु पुत्रों, गुरु माता, उनके अनुयायियों एवं सिख योद्धाओं के बलिदान को याद करता है।

    यह वही सप्ताह है जिसमें चकमौर का वह भीषण युद्ध हुआ था जिसे भारतभूमि के महानतम युद्धों में शामिल किया जाता है। इस युद्ध में चंद सिख योद्धाओं ने लाखों की इस्लामिक सेना को नाको चने चबवा दिए थे।

    दरअसल इसका आरंभ 20 दिसंबर 1704-1705 (ज्ञानी ज्ञान सिंह पंथ प्रकाश के अनुसार यह वर्ष 1704 की और बंसावलीनामा दासन पातशाहियां केसर सिंह छिब्बर एवं प्राचीन पंथ प्रकाश रतन सिंह भंगू के अनुसार यह वर्ष 1705 की घटना है) की उस घटना के बाद हुआ था जब इस्लामिक आक्रमणकारियों की विशाल सेना ने गुरु निवास आनंदपुर साहिब किले में हमला कर दिया था।

    इस दौरान मुगलों ने गुरु गोबिंद सिंह जी के समक्ष यह शर्त रखी थी कि यदि वें अपना किला छोड़कर चले जाएं तो उनके परिवार समेत किसी भी सिख पर आक्रामक नहीं किया जाएगा। मुगलों के द्वारा यह भी कहा गया था कि औरंगजेब ने क़ुरान की कसम खाकर कहा है कि वह गुरु और उनके परिजनों को आनंदपुर साहिब से निकलने के लिए सुरक्षित मार्ग भी प्रदान करेगा।

    हालांकि इस्लामिक आक्रमणकारियों की यह बात भी उनके तमाम बातों की तरह झूठी निकली और जैसे ही 20 दिसंबर की देर रात्रि गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने परिवार और 400 सिखों के साथ आनंदपुर साहिब छोड़ा, वैसे ही इस्लामिक आक्रमणकारियों ने उनके विरुद्ध आक्रमण की तैयारी शुरू कर दी।

    20-21 दिसंबर की मध्यरात्रि में जैसे ही गुरु के नेतृत्व में सिखों का जत्था किले से 25 किलोमीटर दूर सरसा नदी के समीप पहुंचा, वहाँ पहले से मौजूद मुगल सेना ने सिखों पर हमला कर दिया। इस्लामिक जिहादी आक्रमणकारियों द्वारा किए गए इस औचक हमले के कारण कई सिख वीरगति को प्राप्त हुए।

    घने अंधेरा और भारी बारिश के बीच उफनती सरसा नदी के तट पर चल रहे इस भीषण संघर्ष में सिख योद्धाओं ने गुरु परिवार को बचाने के लिए मुगल सेना का जमकर मुकाबला किया और गुरु परिवार को नदी पार करने का अवसर दिया।

    हालांकि इस दौरान गुरु गोबिंद सिंह जी की माता गुजरी जी और गुरु के दो छोटे साहिबजादे अलग दिशा में चले गए, वहीं दो बड़े साहिबजादे अपने पिता के साथ दूसरे मार्ग में चल पड़े।

    400 सिखों के साथ निकलला यह जत्था, इस हमले के बाद कमजोर हो गया और गुरु के साथ उनके दो पुत्रों के अलावा केवल 45 सिख योद्धा बचे। 21 दिसंबर को इन योद्धाओं ने चमकौर में अपना डेरा डाला और फिर सायं काल तक क्षेत्र की छोटी पहाड़ी में स्थित कच्ची गढ़ी पर अपना नियंत्रण स्थापित किया।

    इस दौरान लाखों जिहादियों की विशाल मुगल सेना चकमौर पहुंच रही थी, जिनका एकमात्र उद्देश्य गुरु समेत उनके सभी योद्धाओ को खत्म करना था। 'सत श्री अकाल' के जयकारे के साथ सिख योद्धाओं ने इस्लामिक आक्रमणकारियों के विरुद्ध युद्ध लड़ा, लेकिन अपने अधिकारों का प्रयोग करते हुए उन्होंने गुरु गोबिंद सिंह जी को युद्ध से दूर रखा, ताकि विषम परिस्थितियों में भी सिख समाज को गुरु का नेतृत्व मिलता रहे।

    इस चकमौर के भीषण युद्ध में 40 सिख योद्धाओं ने लाखों की मुगल फौज का जमकर मुकाबला किया। इस युद्ध में गुरु गोबिंद सिंह जी के दोनों बड़े साहिबजादों ने एक-एक कर शामिल होने की अनुमति मांगी और मुगल सेना का वीरता से सामना करते हुए मातृभूमि की रक्षा हेतु अपने प्राणों की आहुति दे दी। इस युद्ध में मुगल सेना को भारी क्षति का सामना करना पड़ा और गुरु गोबिंद सिंह जी भी उनकी पकड़ से बाहर रहे।


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