18 -18 साल के बच्चों ने दिया बलिदान यतीन्द्रनाथ मुखर्जी,प्रफुल्ल चंद्र चाकी.

1. यतीन्द्रनाथ मुखर्जी

यतीन्द्रनाथ मुखर्जी भारतीय क्रांतिकारी थे। वे क्रांतिकारियों का प्रमुख संगठन युगांतर पार्टी के मुख्य नेता थे। अंग्रेजों की बंग – भंग योजना का जमकर विरोध किया। आंदोलन को धार देने के लिए उन्होने अपने चार साथियों के साथ मिलकर 26 अगस्त 1915 को कोलकाता रोड एंड कंपनी के बंदूक बिक्री केंद्र से पिस्टल लूट ली। 27 साल की आयु में उन्होने अपनी बहादुरी से एक बाघ को मार दिया जिस के कारण उन्हे बाघा यतीन्द्र के नाम से भी जाना जाता था। 

जन्म

यतीन्द्रनाथ मुखर्जी का जन्म 7 दिसंबर 1879 में नदिया-कुष्टिया, बंगाल, ब्रिटिश भारत में हुआ था। जब वे पाँच साल के थे तो उनके पिता का देहांत हो गया जिसके बाद उनकी माता ने उनका पालन पोषण किया।

शिक्षा

यतीन्द्रनाथ ने 18 साल की आयु में मैट्रिक की परीक्षा पास कर ली और परिवार के जीविकोपार्जन के लिए स्टेनोग्राफ़ी सीखकर ‘कलकत्ता विश्वविद्यालय’ से जुड़ गए। वह बचपन से ही बड़े बलिष्ठ थे। 27 साल की आयु में उन्होने अपनी बहादुरी से एक बाघ को मार दिया जिस के कारण उन्हे बाघा यतीन्द्र के नाम से भी जाना जाता था।

योगदान

यतीन्द्रनाथ मुखर्जी क्रांतिकारियों का प्रमुख संगठन युगांतर पार्टी के मुख्य नेता थे। अंग्रेजों की बंग – भंग योजना का जमकर विरोध किया। आंदोलन को धार देने के लिए उन्होने अपने चार साथियों के साथ मिलकर 26 अगस्त 1915 को कोलकाता रोड एंड कंपनी के बंदूक बिक्री केंद्र से पिस्टल लूट ली।

डकैती

क्रांतिकारियों के पास आन्दोलन के लिए धन जुटाने का प्रमुख साधन डकैती था। दुलरिया नामक स्थान पर भीषण डकैती के दौरान अपने ही दल के एक सहयोगी की गोली से क्रांतिकारी अमृत सरकार घायल हो गए। विकट समस्या यह खड़ी हो गयी कि धन लेकर भागें या साथी के प्राणों की रक्षा करें! अमृत सरकार ने यतीन्द्रनाथ से कहा कि धन लेकर भाग जाओ, तुम मेरी चिंता मत करो, लेकिन इस कार्य के लिए यतीन्द्रनाथ तैयार न हुए तो अमृत सरकार ने आदेश दिया- “मेरा सिर काटकर ले जाओ, जिससे कि अंग्रेज़ पहचान न सकें।” इन डकैतियों में ‘गार्डन रीच’ की डकैती बड़ी मशहूर मानी जाती है। इसके नेता यतीन्द्रनाथ मुखर्जी ही थे। इसी समय में विश्वयुद्ध प्रारंभ हो चुका था। कलकत्ता में उन दिनों ‘राडा कम्पनी’ बंदूक-कारतूस का व्यापार करती थी। इस कम्पनी की एक गाडी रास्ते से गायब कर दी गयी थी, जिसमें क्रांतिकारियों को 52 मौजर पिस्तौलें और 50 हज़ार गोलियाँ प्राप्त हुई थीं। ब्रिटिश सरकार हो ज्ञात हो चुका था कि ‘बलिया घाट’ तथा ‘गार्डन रीच’ की डकैतियों में यतीन्द्रनाथ का ही हाथ है।

पुलिस से मुठभेड़

1 सितम्बर 1915 को पुलिस ने यतीन्द्रनाथ का गुप्त अड्डा ‘काली पोक्ष’ ढूंढ़ निकाला। यतीन्द्रनाथ अपने साथियों के साथ वह जगह छोड़ने ही वाले थे कि राज महन्ती नमक अफ़सर ने गाँव के लोगों की मदद से उन्हें पकड़ने की कोशश की। बढ़ती भीड़ को तितर-बितर करने के लिए यतीन्द्रनाथ ने गोली चला दी। राज महन्ती वहीं ढेर हो गया। यह समाचार बालासोर के ज़िला मजिस्ट्रेट किल्वी तक पहुँचा दिया गया। किल्वी दल बल सहित वहाँ आ पहुँचा। यतीश नामक एक क्रांतिकारी बीमार था। यतीन्द्रनाथ उसे अकेला छोड़कर जाने को तैयार नहीं थे। चित्तप्रिय नामक क्रांतिकारी उनके साथ था। दोनों तरफ़ से गोलियाँ चली। चित्तप्रिय वहीं शहीद हो गया। वीरेन्द्र तथा मनोरंजन नामक अन्य क्रांतिकारी मोर्चा संभाले हुए थे।

वीरगति (मृत्यु)

9 सितंबर 1915 को अंग्रेजों के साथ हुई मूठभेड़ में वे बुरी तरह घायल हो गए और 10 सितंबर को अस्पताल में उनकी मृत्यु हो गई।

2.अमर क्रांतिकारी प्रफुल्ल चंद्र चाकी






अमर क्रांतिकारी प्रफुल्ल चंद्र चाकी 1857 कि क्रान्ति के अमर सेनानी जिनका बलिराम अतूलनीय हैं कितनी सहजता से मौत को गले लगा लेते थे आज़ मौत का नाम सुनते ही शरीर में कंपकंपी मच जाती है परन्तु हमारे देश के वीरों ने वास्तव में इस मिट्टी को खून से सींचा है।
भारत के ऐसे कई बलिदान हुए हैं जिनका रत्ती भर भी कहीं भारत कि आजादी में योगदान का अंश मात्र नहीं आया कभी पाठ्यक्रमों और पुस्तकों में इनके बलिदान रंच मात्र भी उल्लेख नहीं कितना दुर्भाग्यपूर्ण इतिहास लिखा गया हमारे देश का कोई नाम तक नहीं जानता है प्रफुल्ल चंद्र चाकी का ऐसा दुर्भाग्य यदि किसी देश का हो तो कैसे मान सकतें कि इस देश का आत्म गौरव खिलखिला रहा है।

सन १८८८ में आज १० दिसम्बर के दिन जन्मे क्रांतिकारी प्रफुल्ल चाकी का नाम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में अत्यंत सम्मान के साथ लिया जाता है। प्रफुल्ल का जन्म उत्तरी बंगाल के बोगरा गाँव (अब बांग्लादेश में स्थित) में हुआ था। जब प्रफुल्ल

 दो वर्ष के थे तभी उनके पिता जी का निधन हो गया। उनकी माता ने अत्यंत कठिनाई से प्रफुल्ल का पालन पोषण किया। विद्यार्थी जीवन में ही प्रफुल्ल का परिचय स्वामी महेश्वरानंद द्वारा स्थापित गुप्त क्रांतिकारी संगठन से हुआ और उनके अन्दर देश को स्वतंत्र कराने की भावना बलवती हो गई। इतिहासकार भास्कर मजुमदार के अनुसार प्रफुल्ल चाकी राष्ट्रवादियों के दमन के लिए बंगाल सरकार के कार्लाइस सर्कुलर के विरोध में चलाए गए छात्र आंदोलन की उपज थे। पूर्वी बंगाल में छात्र आंदोलन में उनके योगदान को देखते हुए क्रांतिकारी बारीद्र घोष उन्हें कोलकाता ले आए जहाँ उनका सम्पर्क क्रांतिकारियों की युगांतर पार्टी से हुआ। उन्हें पहला महत्वपूर्ण काम अंग्रेज सेना अधिकारी सर जोसेफ बैंफलाइड फुलर को मारने का दिया गया पर यह योजना कुछ कारणों से सफल नहीं हुई।

 क्रांतिकारियों को अपमानित करने और उन्हें दण्ड देने के लिए कुख्यात कोलकाता के चीफ प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड को जब क्रांतिकारियों ने जान से मार डालने का निर्णय लिया तो यह कार्य प्रफुल्ल चाकी और खुदीराम बोस को सौंपा गया। दोनों क्रांतिकारी इस उद्देश्य से मुजफ्फरपुर पहुंचे जहाँ ब्रिटिश सरकार ने किंग्सफोर्ड के प्रति जनता के आक्रोश को भाँप कर उसकी सरक्षा की दृष्टि से उसे सेशन जज बनाकर भेज दिया था। दोनों ने किंग्सफोर्ड की गतिविधियों का बारीकी से अध्ययन किया एवं ३० अप्रैल १९०८ ई० को किंग्सफोर्ड पर उस समय बम फेंक दिया जब वह बग्घी पर सवार होकर यूरोपियन क्लब से बाहर निकल रहा था। लेकिन जिस बग्घी पर बम फेंका गया था उस पर किंग्सफोर्ड नहीं था बल्कि बग्घी पर दो यूरोपियन महिलाएँ सवार थीं। वे दोनों इस हमले में मारी गईं। 

दोनों क्रन्तिकारी घटनास्थल से भाग निकले परन्तु मोकामा स्टेशन पर चाकी को पुलिस ने घेर लिया| उन्होंने अपनी रिवाल्वर से अपने ऊपर गोली चलाकर अपनी जान दे दी। यह घटना १ मई, १९०८ की है। बिहार के मोकामा स्टेशन के पास प्रफुल्ल चाकी की मौत के बाद पुलिस उपनिरीक्षक एनएन बनर्जी ने चाकी का सिर काट कर उसे सबूत के तौर पर मुजफ्फरपुर की अदालत में पेश किया। यह अंग्रेज शासन की जघन्यतम घटनाओं में शामिल है। चाकी का बलिदान जाने कितने ही युवकों का प्रेरणाश्रोत बना और उसी राह पर चलकर अनगिनत युवाओं ने मातृभूमि की बलिवेदी पर खुद को होम कर दिया| 

महान हुतात्मा को आज उनके जन्मदिवस पर कोटिशः नमन|


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