राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आरएसएस कि पहली अग्नि परीक्षा |
स्वतंत्र भारत के सामने सर्वप्रथम सर्वाधिक कठिन एवं पीड़ादायक प्रसंग विश्ववंद्य महात्मा गांधी की जघन्य हत्या के रूप में उपस्थित हुआ। ऐसे कठिन काल में देश की समूची राष्ट्रभक्त शक्तियों को एकजुट कर राष्ट्र नौका को सुरक्षित आगे बढ़ाने का दायित्व जिन पर था उन्होंने अपेक्षा के सर्वथा विपरीत व्यहवहार किया। गांधीजी की हत्या के समान जघन्य पाप का मिथ्या आरोप एक अत्यंत देशभक्त, चरित्र और अनुशासन सम्पन्न, देश पर आने वाले हर संकट की घड़ी में निस्वार्थ भाव से अग्रिम पंक्ति में खड़े होने वाले, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के समान सामाजिक संगठन के माथे मढ़कर उसे कुचल डालने का षडयंत्र रचा। गांधीजी की चिता पर अपने दलगत स्वार्थों की रोटियां सेंकने का कुत्सित प्रयास किया। देशभर में भयानक विषाक्त वातावरण फैलाया। हिंसा, असत्य-अन्याय, हत्या, लूटपाट व आगजनी का तांडव सर्वत्र भड़काया। समाज विरोधी सारी शक्तियों को खुली छूट दे दी, परिणाम स्वरूप देशभर में मानवता चीत्कार करने लगी और पशुता हुंकारने लगी।
उक्त सत्ता मदांध षडयंत्र को उसकी चरम परिणति तक पहुंचाने के लिए सरकारी तंत्र का भरपूर निर्लज्ज दुरूपयोग किया गया। विदेशी ब्रिटिश शासन भी जिस निम्न स्तर पर नहीं उतरा था, उससे भी नीचे उतरकर दमन चक्र चलाया गया। उन दिनों उस षडयंत्र के परिणाम स्वरूप घटी रोंगटे खड़े करने वाली घटनाओं तथा काली ताकतों द्वारा की गई विध्वंस लीलाओं का सत्य चित्र इस गाथा में पाठकों को देखने को मिलेगा।
सत्ताधीशों ने उस समय जो किया या कराया वह स्वतंत्र भारत के भविष्य के लिए एक अत्यंत अनिष्ट सूचक संकेत बन गया। अपने निजी दलगत स्वार्थ के लिए सत्ताधीशों ने इस प्रकार अन्याय और असत्य के पथ पर चलकर अनिवार्यत: परिपाटी को जन्म दे दिया। उपर्युक्त अनिष्टकारक संकेत के साथ ही भारत के भविष्य के लिए आशाप्रद आश्वासन देने वाला संदेश व संकेत भी इस कथा में देखने को मिलेगा। गांधीजी की हत्या के आरोप जैसे वीभत्स अप्रचार, हिंसा के अमानवीय उद्रेक, हजारों कार्यकर्ताओं पर आक्रमण, दर्जनों को जिंदा जलाया जाना, करोड़ों रूपयों की संपत्ति की लूटपाट, सैकड़ों उद्योगों व घरों की विनाशलीला, हजारों का कानून विरोधी कारावास तथा भीषण दमनचक्र इन सबको सहज भारत से अप्रतिकारी रहकर सहन करते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने राष्ट्र की एकता व समरसता पर आंच न आने देने का निश्चय किया। सब प्रकार के लोकतांत्रिक विधि विधानों का अवलंबन ही अन्याय के परिमार्जन हेतु किया। जब स्वार्थ व मदांध सत्ता न मानी तो समाज की अंतरात्मा को जगाने हेतु स्वयं एक अत्यंत कठिन अग्नि परीक्षा के लिए तैयार हो गया। इसके लिए देश व्यापी सत्याग्रह का मार्ग अपनाकर अभूतपूर्व उदाहरण प्रस्तुत किया। इस सत्याग्रह में 70 हजार से अधिक लोगों ने कारावास स्वीकार किया सत्याग्रह तो लगभग दो लाख लोगों ने किया। यह सत्याग्रह अपनी संख्या, अनुशासन व पूर्ण अहिंसा के पालन की दृष्टि से अनुपम रहा। स्वतंत्रता संग्राम में भी किसी एक समय में इतने लोगों ने बंदी-वास स्वीकार नहीं किया।
यह संघर्ष पूरी तरह असमान शक्तियों के बीच था। ''रावण रथी विरथ रघुवीरा'' वाली स्थिति थी। सत्ता की अपार और अजेय मानी जाने वाली पाश्वी शक्ति के सामने संघ, के पास थी उसके स्वयंसेवकों की अक्षय ध्यये निष्ठा, देशभक्ति, पारस्परिक विश्वास, तथा न्याय पाने के लिए हर कुर्बानी देने की तत्परता की शक्ति। पर अंत में रावण-राम संघर्ष के समान ही पाश्वी सत्ता पराभूत हुई व लोकशक्ति की विजय हुई सत्य और न्याय की इस विजय में भारत के भविष्य के लिए मार्गदर्शक दिशा भी निहित है तथा उज्ज्वल संकेत भी। लोकतंत्र, भारत के जीवन मूल्यों तथा शांति व व्यवस्था पर अडिग निष्ठा रखने वाले और उसी के ध्वज के नीचे किसी भी प्रकार की कीमत चुकाने के लिए सिध्द, सुसज्ज जनसंगठन का प्रभाव होना ही राष्ट्र पर आने वाली सभी आपदाओं पर विजय की गांरटी हैं यही आशाभरा संदेश है इस गाथा का।
इस तथ्य की अनुभूति 1975-77 के बीच के कराल आपातकाल के समय पर भी हुई। उस समय भी जनतंत्र पर सत्य व न्याय पर, तथा राष्ट्र के जीवन मूल्यों पर जो भयानक प्रहार हुआ और उसके प्रतिकार हेतु सत्ता पिपासु मदांध शक्ति एवं देशभक्ति के मध्य जो घोर संघर्ष हुआ, उसमें भी जनशक्ति की जो विजय हुई, उसके पीछे भी इसी चारित्रय संपन्न, निस्वार्थ, त्यागमयी संगठन की निर्णायक भूमिका रही।
इस इतिहास को घटे 45 साल बीतने के बाद उसे लिखने की क्या उपयोगिता है, इस प्रश्न का उत्तर देना भी यहां आवश्यक है। आज हमारा देश चौराहे पर खड़ा है। राष्ट्र की एकता व अखंडता के लिए इतना बड़ा खतरा पहले कभी नहीं खड़ा हुआ था जितना आज उपस्थित है। दलगत स्वार्थों की पूर्ति हेतु हमारे बड़े-बड़े कहे जाने वाले नेता देश के व्यापक हितों को दांव पर लगाने में संकोच नहीं कर रहे हैं। इसी कारण आज भी उसी प्रकार के संघर्ष का दृश्य चतुर्दिक दृष्टिगोचर हो रहा है। एक ओर राष्ट्र जीवन के हर क्षेत्र में सत्ता पिपासुओं का बोलबाला है। राष्ट्र जीवन के लिए आवश्यक किसी भी प्रकार का परहेज न रखते हुए सब प्राकर के कानून विरोधी जनतंत्र विरोधी, विघटन परक, हिंसात्मक तंत्रों व नीतियों का निर्लज्ज प्रयोग हो रहा है। दूसरी ओर भारत की देशभक्त, राष्ट्र की अस्मिता के लिए समर्पित दैवी शक्तियों भी जागृत हो गयी हैं इन देशभक्त शक्तियों के लिए यह पूर्व इतिहास एक अत्यंत स्फूर्तिदायक प्रकाश् स्तम्भ बन सकता है। उसके प्रकाश में सर्वत्र फैल रही विष बेलों को उखाड़ फेंकने का संकल्प सजीव हो उठ सकता है। आज देश के सामने जो चुनौतियां विद्यमान है, उन्हें देखते हुए, तो 45 साल बाद यह इतिहास और उपयोगी हो सकता है। यह इतिहास तो अपने राष्ट्र के लिए चिरंतन प्रेरणा का स्त्रोत है। उसकी प्रेरणा की क्षमता किसी समय सीमा में नहीं बंधी है, क्योंकि वह एक अखंड सत्य को प्रतिपादित करता हैं और वह सत्य है- जब जब आसुरी सत्तालूलुप शक्तियां प्रबल होकर देश के जीवन मूल्यों के लिए खतरा बनती है तो उनका उन्मूलन ओर पराभव कर स्वस्थ राष्ट्र का निर्माण, संगठित एवं देशभक्ति से ओतप्रोत जनशक्ति से ही सम्भव होता है। इसलिए 45 साल बीत जायें या 400 साल यह इतिहास तो सात्विक प्रेरणा का स्त्रोत रहेगा ही।
वैसे भी कालांतर के पश्चात् लिखा गया इतिहास ही अधिक वस्तु परक होता हैं क्योंकि वह तत्कालीन वायु मंडल से अप्रभावित रहता है। घटना के तुरंत पश्चात तो अनेक दबाव रहते हैं जो लेखक को प्रभावित व पूर्वाग्रह से ग्रसित कर सकते हैं। उन दबावों के अंतर्गत वस्तु परक विश्लेषण सामान्यत: सम्भव नहीं हो पाता। इसके साथ ही कई अनकहीं कहानियां या तथ्य उस समय के वातावरण की धुन्ध में आखों से ओझल रहते है, या अपने विकृत रूप में दिखाई पड़ते हैं। वातावरण शांत व सुस्थिर हो जाने पर सारे तथ्य अपने वास्तविक रूप में परिलक्षित होने लगते है। इस दृष्टि से भी घटना के 45 साल बाद लिखा गया यह इतिहास निश्चित ही अधिक प्रामाणिक तथा विश्लेषण् अधिक वस्तुपरक बन सका है। इतने समय बाद भी यह विवेचन इसलिये और आवश्यक था कि उस समय जो अप्रचार चला उसके शिकार हुए अनेक लोग आज भी नजर आते है।
उस समय प्रचारित साहित्य व धारणाओं के आधार पर आज भी जन सामान्य को भ्रमित किया जाता है या किया जा सकता है। आज भी यदाकदा कुछ नेताओं के भाषणों तथा कुछ लेखकों के लेखों द्वारा यह प्रचारित होता है कि ''राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ गांधीजी का हत्यारा है।'' तीन तीन न्यायालयों के स्पष्ट निर्णयों के बाद भी तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती गांधी ने 1971 में आरोप लगाया था कि संघ ने गांधी जी की हत्या की थी तथा संघ वालों ने उस हत्या की खुशी में दिए जलाए थे। इस प्रचार से जनसामान्य किंचित भी प्रभावित या भ्रमित नहीं होता, ऐसा नहीं कहा जा सकता। भ्रम की यह स्थिति उत्पन्न करना आज भी इसीलिये तो सम्भव होता हैं कि जनता के सामने सही और वास्तविक पक्ष पूरे तथ्यों के साथ नहीं आ पाया हैं इस दृष्टि से भी 45 साल बाद इस इतिहास को उसके सही परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया जाना अत्यंत उपयोगी है। असत्य को यदि बेरोकटोक खुला छोड़ दिया गया तो वह सत्य बनकर समाज के मन और मस्तिष्क पर छा जाता है। यह कालखंड अगणित घटनाओं से भरा हुआ हैं उन सभी घटनाओं का कष्ट सहन का, अनुशासन का, अत्म बलिदान का, अन्याय और अत्याचारों की करूण गाथाओं तथा प्रेरक प्रसंगों का उच्च सत्ता पर बैठे नेताओं की नीची करतूतों का वर्णन इस लघु प्रयास में सम्भव नहीं था। इसलिए यहां प्रतिनिधि घटनाओं का ही विवरण देकर संतोष करना पड़ा है। पुस्तक की पृष्ठ संख्या आदि की दृष्टि से इसे जितना भी वैविध्यपूर्ण बनाया जाना सम्भव था, बनाने का प्रयास किया गया है। फिर भी अनेक त्रुटियां सम्भव है। अत: कोई जानकार पाठक सुझायेगा तो अगले संस्करण में उन त्रुटियों को दूर किया जा सकेगा। हमारे निवेदन-विज्ञापन पर अनेक भुक्त भोगियों ने जो उपयोगी सामग्री भेजी थी उस सबका उपयोग भी हम नहीं कर पाये है। आशा है कि वे बंधु हमारी विवशता का ध्यान कर हमें क्षमा करेंगे। हमारा यह सौभाग्य है कि हमारे निवेदन पर इस पुस्तक की प्रस्तावना लिखने हेतु राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक पूजनीय बालासाहब देवरस तैयार हुए तथा उन्होंने स्वास्थ्य ठीक न होने पर भी इस पुस्तक को अपनी प्रसतावना के रूप में आशीर्वाद प्रदान किया है। पूजनीय बालासाहब 45 साल पूर्व घटे उस संघर्ष के प्रमुख केन्द्र बिंदु थे। अतएव स्वभावत: उनके द्वारा लिखी गई प्रस्तावना ने इस पुस्तक की साख और महत्व दोनों को ही विशेष आयाम प्रदान किया है। इस पुस्तक की सामग्री को संजोने तथा उसे व्यवस्थित करने के कार्य में इस संघर्ष के प्रमुख सूत्रधारों में से एक आदरणीय बापूराव वन्हाडपांडे नागपुर तथा प्रसिध्द लेखक व कवि श्री प्रभाकर मुर्लीधर सकदेव, नागपुर का अत्यंत मूल्यवान सहयोग रहा हैं उनके सहयोग व मार्गदर्शन के बिना इस पुस्तक को इस रूप में प्रस्तुत कर पाना हमारे लिए आज सम्भव ही न हो पाता। वास्तव में तो उन्ही की प्रेरणा व परिश्रम का मूर्तरूप यह पुस्तक हैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह मा. शेषाद्रि जी द्वारा समय-समय पर मिला मार्गदर्शन हमारा प्रमुख सम्बल रहा है। यह सब हमारे इतने अपने है कि उनके प्रति आभार व्यक्त करना महज औपचारिकता ही है। संघ के अखिल भारतीय सह बौध्दिक प्रमुख मा. कौशल किशोरजी ने अपने अमूल्य सुझावों और मार्गदर्शन से तो हमें लाभांवित किया ही, साथ ही 'अर्चना प्रकाशन भोपाल' को इस पुसतक के प्रकाशन की प्रेरणा देकर हमारा काम पूरा किया है। मा. कौशल किशोरजी के तो हम आभारी है ही 'अर्चना प्रकाशन' के भी हम आभारी है कि उसने इस पुस्तक के प्रकाशन का उत्तरदायित्व सहर्ष स्वीकार किया।
इसके साथ ही इसी प्रकार के आपात स्थिति के विरूध्द हुए संघर्ष की प्रामाणिक जानकारी देने वाली पुस्तक 'आपातकालीन संघर्ष गाथा' भी प्रकाशित हो ही चुकी थी। अतएव सभी दृष्टियों से विचार कर यही निष्कर्ष निकला कि अब संघ पर लगे प्रथम प्रतिबंध की सही और प्रामाणिक जानकारी जनता व कार्यकर्ताओं तक पहुचाई ही जानी चाहिए। यह निश्चय होने पर अध्यतन सामग्री जुटाने हेतु तरूण भारत, पांचजन्य, ऑर्गनाइजर आदि समाचार पत्रों में विज्ञापन प्रकाशित कराए गए। उस संघर्ष में प्रमुख भूमिका निभाने वाले प्रांत-प्रांत के भुक्तभोगी कार्यकर्ताओं से सम्पर्क साधकर उनसे जानकारियां प्राप्त की गयी। उस सम्बन्ध में जानकारी देने वाले अब तक प्रकाशित ग्रन्थों को मथा गया। स्थान-स्थान पर उपलब्ध आलेखों की सहायता ली गयी और उन सब के मंथन से जो नवनीत निकला उसी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की 'पहली अग्नि परीक्षा' इस नाम से पुस्तक के रूप में संजोया गया है।
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