आरएसएस के ग्रहस्थ प्रचारक पूर्व सरकार्यवाह भैया जी दाणी



मा. भैयाजी दाणी (प्रभाकर बलवंत दाणी) (1907-1965)

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व सरकार्यवाह, गृहस्थ प्रचारक प्रभाकर बलवन्त दाणी उपाख्य भैयाजी दाणी’ (९ अक्तूबर १९०७ — २५ मई १९६५), राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रसिद्ध स्वयंसेवक थे। वे संघ के प्रचारक रहे और सरकार्यवाह का दायित्व निभाया। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पूर्व मध्य भारत में संघ के विस्तार में उनकी महती भूमिका थी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की परम्परा में प्रचारक अविवाहित रहकर काम करते हैं; पर भैयाजी दाणी इसके अपवाद थे।

प्रभाकर बलवन्त दाणी का जन्म 9 अक्तूबर, 1907 को उमरेड, नागपुर में हुआ था। ये अत्यन्त सम्पन्न पिता के इकलौते पुत्र थे। उनके पिता श्री बापू जी लोकमान्य बालगंगाधर तिलक के भक्त थे। भैया जी ने मैट्रिक तक पढ़ाई नागपुर में की। इसके बाद डा. हेडगेवार ने उन्हें पढ़ने के लिए काशी भिजवा दिया। वहाँ उन्होंने शाखा की स्थापना की। नागपुर के बाहर किसी अन्य प्रान्त में खुलने वाली यह पहली शाखा थी। इसी शाखा के माध्यम से के माध्यम से श्री गुरूजी को भैयाजी दाणी ही संघ मे लाये थे, जो डा. हेडगेवार के देहान्त के बाद सरसंघचालक बने।

उन दोनों भाइयों की जोड़ी बाल-भाऊ के नाम से प्रसिद्ध थी। संघ की स्थापना होने पर पहले बाल और फिर 1927-28 में भाऊ भी शाखा जाने लगे। डा. हेडगेवार के घर में खूब आना-जाना होने से दोनों संघ और उसके विचारों से एकरूप हो गये। 1937 में भाऊराव ने स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण की। अब डा. हेडगेवार ने उन्हें उ.प्र. में जाने को कहा। अतः भाऊराव ने लखनऊ वि.वि. में बी.काॅम तथा एल.एल.बी. में प्रवेश ले लिया। उन दिनों वहां दो वर्ष में डबल पोस्ट डिग्री पाठ्यक्रम की सुविधा थी। भाऊराव ने दोनों विषयों में स्वर्ण पदक प्राप्त किये। लखनऊ में वे संघ के साथ स्वाधीनता आंदोलन में भी सक्रिय रहे। काशी से लौटकर भैया जी ने नागपुर में वकालत की पढ़ाई की; पर संघ कार्य तथा घरेलू खेतीबाड़ी की देखभाल में ही सारा समय निकल जाने के कारण वे वकालत नहीं कर सके। विवाह के बाद भी उनका अधिकांश समय सामाजिक कामों में ही लगता था। कांग्रेस, कम्युनिस्ट, हिन्दू महासभा आदि सभी दलों में उनके अच्छे सम्पर्क थे। वे काम में आने वाली बाधाओं को दूर करने तथा रूठे हुए कार्यकर्ताओं को मनाने में बड़े कुशल थे। इसलिए कुछ लोग उन्हें ‘मनों को जोड़ने वाला सेतु’ कहते थे। साण्डर्स वध के बाद क्रान्तिकारी राजगुरु भी काफी समय तक उनके फार्म हाउस में छिप कर रहे थे।

उन दिनों नागपुर में श्री मार्तंडराव जोग का गुब्बारे बनाने का कारखाना था। भाऊराव ने लखनऊ में गुब्बारे बेचकर कुछ धन का प्रबन्ध करने का प्रयास किया; पर यह योजना सफल नहीं हुई। 1941 में उन्होंने काशी को अपना केन्द्र बना लिया। क्योंकि वहां काशी हिन्दू वि.वि. में पढ़ने के लिए देश भर से छात्र आते थे। वहां श्री दत्तराज कालिया की हवेली में उन्होंने अपना ठिकाना बनाया। यद्यपि उनका पूरा दिन छात्रावासों में ही बीतता था। उन छात्रों के बलपर क्रमशः उ.प्र. के कई जिलों में शाखाएं खुल गयीं। श्री दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी, रज्जू भैया जैसे श्रेष्ठ छात्र उन दिनों उनके संपर्क में आये, जो फिर संघ और अन्य अनेक कामों में शीर्षस्थ स्थानों पर पहुंचे।

उ.प्र. में संघ कार्य करते हुए भाऊराव का ध्यान और भी कई दिशाओं में रहता था। इसी के परिणामस्वरूप 1947 में लखनऊ में ‘राष्ट्रधर्म प्रकाशन’ की स्थापना हुई। जिसके माध्यम से राष्ट्रधर्म मासिक, पांचजन्य साप्ताहिक तथा तरुण भारत जैसे दैनिक पत्र प्रारम्भ हुए। आज ‘विद्या भारती’ के नाम से देश भर में लगभग एक लाख विद्यालयों का जो संजाल है, उसकी नींव 1952 में गोरखपुर में ‘सरस्वती शिशु मंदिर’ के माध्यम से रखी गयी थी।

उ.प्र. में संघ कार्य को दृढ़ करने के बाद भाऊराव क्रमशः बिहार, बंगाल और पूर्वोत्तर भारत के क्षेत्र प्रचारक तथा फिर सह सरकार्यवाह बनाये गये। इन दायित्वों पर रहते हुए उन्होंने पूरे देश में प्रवास किया। फिर उनका केन्द्र दिल्ली हो गया। यहां रहते हुए वे विद्या भारती तथा भारतीय जनता पार्टी जैसे कामों की देखरेख करते रहे। व्यक्ति पहचानने की अद्भुत क्षमता के कारण उन्होंने जिस कार्यकर्ता को जिस काम में लगाया, वह उस क्षेत्र में यशस्वी सिद्ध हुआ।

1942 में श्री गुरुजी ने सभी कार्यकर्ताओं से समय देने का आह्नान किया। इस पर भैया जी गृहस्थ होते हुए भी प्रचारक बने। उन्हें मध्य भारत भेजा गया। वहाँ वे 1945 तक रहे। इसके बाद उनकी कार्यकुशलता देखकर उन्हें सरकार्यवाह जैसा महत्वपूर्ण दायित्व दिया गया। 1945 से 1956 तक इस दायित्व का उन्होंने भली प्रकार निर्वाह किया।

1956 में पिताजी के देहान्त के बाद उन्हें घर की देखभाल के लिए कुछ अधिक समय देना पड़ा। अतः श्री एकनाथ रानडे को सरकार्यवाह का दायित्व दिया गया। तब भी नागपुर के नरकेसरी प्रकाशन का काम उन पर ही रहा। 1962 से 1965 तक वे एक बार फिर सरकार्यवाह रहे; पर उनके खराब स्वास्थ्य को देखकर 1965 में अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा ने श्री बालासाहब देवरस को सरकार्यवाह चुना। इसके बाद भी उनका प्रवास चलता रहा। 1965 में इन्दौर के संघ शिक्षा वर्ग में उनका स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया और 25 मई, 1965 को कार्यक्षेत्र में ही उस कर्मयोगी का देहान्त हो गया।

संघ के आरंभ में सक्रिय भूमिका में रहे गृहस्थ प्रचारकों के पुरोधा कहे जाने वाले भैयाजी दाणी का पूरा नाम श्री प्रभाकर बलवंत दाणी था। एक संपन्न घराने के इस एकमात्र कुलदीपक ने 9 अक्तूबर, 1907 को नागपुर की उमरेड तहसील में जन्म लिया। 'तिलकजी' का उनके जीवन पर गहरा प्रभाव ही नहीं था, वरन् ये उनकी गोद में भी खेले थे। मैट्रिक की शिक्षा के लिए श्री विश्वनाथ केलकर के यहाँ ठहरे और डॉ. हेडगेवारजी, डॉ. मुंजे और डॉ. परांजपे जैसे देशभक्तों के संपर्क में आ गए। 

संघ का रंग चढ़ गया अंतर मन तक । काशी में हिंदू विश्वविद्यालय में अध्ययन एवं संघकार्य दोनों एक साथ चले और यहीं वे श्रीगुरुजी के संघ प्रवेश के निमित्त भी बने । वे श्रीगुरुजी के आह्वान पर घर-गृहस्थी छोड़कर प्रचारक बने । वर्ष 1945 में सरकार्यवाह बनाए गए ।

अपनी विनोदप्रिय, वाक्पटु शैली और ओजस्वी व्याख्यानों से संघ की रीति-नीति कार्यकर्ताओं तक सुगमता से पहुँचाने में वे सिद्ध रहे। गंभीर अस्वस्थता भी हुई और संघ शिक्षा वर्ग इंदौर में अस्वस्थता के एक प्रबल आघात से 2 मई, 1965 को दिवंगत हुए ।

'संघ की यही बलवती इच्छा है कि संघ का हर स्वयंसेवक सभी क्षेत्रों में जाए और अपने अस्तित्व मात्र से राष्ट्र - जीवन के सभी क्षेत्रों में राष्ट्रोपकारी परिवर्तन लाए। समाज की उन्नति के लिए जीवन के सभी क्षेत्रों में श्रेष्ठ तत्त्व निर्माण होना चाहिए और उसे निर्माण करने के लिए सभी क्षेत्रों में प्रामाणिक, योग्य, कर्तव्यदक्ष तथा त्यागी लोगों की आवश्यकता है। ऐसे लोग समाज के सभी जीवन क्षेत्रों में पर्याप्त संख्या में उपलब्ध हों, इसी महती आकांक्षा से तो संघ ने चारित्र्यपूर्ण, राष्ट्रीय आकांक्षाओं से प्रेरित कर्तव्य में दत्तचित्त तथा सामूहिक जीवन का दृष्टिकोण लेकर जीवन जीने वाले लोगों की अनंत मालिका निर्माण करने का भार अपने ऊपर ले रखा है। "

 - श्री प्रभाकर बलवंत दाणी

No comments

Theme images by dino4. Powered by Blogger.