संघनीव में विसर्जित पुष्प सुदर्शन जी


संघ के पंचम सरसंघचालक:-

मा.सुदर्शनजी का पूरा नाम कुप्पहली सीतारमैया सुदर्शन था। कर्णाटक का गाँव कुप्पहली उनका पैतृक निवास था। उनके पिता श्री सीताराममैया वन विभाग में कार्यरत थे तथा नौकरी के सिलसिले में वर्षों तक मध्य प्रदेश में रहे। श्री सुदर्शनजी का जन्म 19 जून, 1931 के दिन रायपुर में हुआ। वहीं उनकी प्रारंभिक शिक्षा हुई। उसके बाद उन्होंने जबलपुर से दूरसंचार अभियांत्रिकी में बी.ई. किया ।

मा. सुदर्शनजी ने 9 वर्ष की आयु में शाखा जाना प्रारंभ किया। 23 वर्ष की आयु में बी.ई. करते ही उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन राष्ट्र कार्य के लिए समर्पित कर दिया। शाखा पद्धति की प्रत्येक विद्या में उन्होंने पारंगतता प्राप्त की। कबड्डी आदि खेल, दंड व्यायाम पद्धति, गीत गायन, घोष वादन, चर्चा, बौद्धिक आदि प्रत्येक दिशा में उन्होंने सिक्का जमाया। किसी भी समस्या की गहराई तक जाकर, उसके बारे में मूलगामी चिंतन कर उसका सही समाधान ढूँढ़ निकालना उनकी विशेषता थी ।

वर्ष 1954 में वे संघ के प्रचारक बने तथा 1964 में मध्य भारत के प्रांत प्रचारक हो गए। अपार प्रतिभा और संगठन क्षमता के कारण पाँच वर्ष के बाद ही वे संघ के अखिल भारतीय शारीरिक प्रमुख बन गए। 1979 में अ. भा. बौद्धिक प्रमुख बन गए। बौद्धिक विभाग में उन्होंने नए-नए प्रयोग किए और कई नवीनताएँ प्रारंभ कीं । प्रतिदिन सुभाषित, अमृतवचन, गीत तथा अन्य दिनों में चर्चा, कथा, समाचार समीक्षा और बौद्धिक वर्ग उनके प्रयासों से ही प्रारंभ हुए। उन्होंने प्रातः स्मरण के स्थान पर 'एकात्मकता स्तोत्र' प्रारंभ किया। वर्ष भर उन्होंने इसके लिए परिश्रम किया और देश के प्रत्येक हिस्से के महापुरुषों का नाम इसमें जोड़ा। एकात्मकता मंत्र भी उन्हीं की देन है। 1960 में उन्हें सह सरकार्यवाह की जिम्मेदारी दी गई।

संस्कृत, हिंदी, अंग्रेजी, मराठी, बँगला, कन्नड़, असमिया, पंजाबी आदि भाषाओं पर उनका समान अधिकार था। मूल रूप से कन्नड़भाषी होने के बाद भी वे राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी के प्रबल समर्थक थे । वे अद्भुत वक्तव्य-कला के धनी थे । स्वदेशी के प्रयोग पर वे सदैव जोर देते थे। बैठकों में भी कार्यकर्ताओं को अपने देश तथा कुटीर उद्योगों में निर्मित वस्तुएँ ही काम में लेने को कहते थे ।

देश भर में प्रवास करते हुए भी अध्ययन के लिए कैसे समय निकाल लेते थे, इसका सभी को आश्चर्य होता था । वे प्रत्येक विषय में निष्णात हैं, ऐसा कार्यकर्ताओं को अनुभव होता था। अपने उद्बोधन में सप्रमाण उदाहरण देते हुए अपनी बात रखते थे। शिक्षा से वे इंजीनियर थे, लेकिन इतिहास, भूगोल, समाजशास्त्र, राजनीति विज्ञान, दर्शन आदि विषयों में भी उनकी जानकारी असाधारण थी ।

मा. सुदर्शनजी के जीवन से प्रत्येक कार्यकर्ता को सीख लेनी चाहिए, ऐसा था उनका अद्भुत जीवन । हृदय रोग के उपचार के लिए उन्होंने एलोपैथी की दवा का आश्रय नहीं लिया । लौकी के रस से इस पर काबू पाया। वर्ष 2000 में मा. रज्जू भैया ने सुदर्शन जी को मा. सरसंघचालक नियुक्त किया। इस गुरुत्तर दायित्व को भी उन्होंने बखूबी निभाया। बाद में अनेक रोगों का आक्रमण होने पर सारा कष्ट उन्होंने स्थितप्रज्ञ की तरह सहन किया तथा कार्यक्रमों, बैठकों आदि में कभी व्यवधान नहीं आने दिया। कर्मयोग की अखंड साधना वे दत्तचित्त होकर करते रहे । वास्तव में वे ज्ञानयोग-कर्मयोग के साथ-साथ भक्तियोग के भी साधक थे। मातृभूमि के लिए अपने जीवन के कण-कण और क्षण-क्षण के समर्पण से बड़ा भक्तियोग और क्या होगा। उनका संपूर्ण जीवन योग साधना था। वर्ष 2009 में सरसंघचालक का दायित्व भी स्वेच्छा से उन्होंने छोड़ दिया और एक महायोगी की भाँति 25 सितंबर, 2012 को उन्होंने देह त्याग कर दिया ।

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