संघनीव में विसर्जित पुष्प बालासाहेब देवरस
संघ के तृतीय सरसंघचालक:-
आपमें से अनेक ने पूज्य डॉ. हेडगेवार को नहीं देखा होगा, पर आज के वक्ता को देखिए और सुनिए, आपको लगेगा कि स्वयं डॉ. हेडगेवार आपके सम्मुख खड़े हैं।'' 1945 में पूना के वर्ग में बौद्धिक के पूर्व वक्ता का परिचय कराते हुए स्वयं परम पूजनीय सरसंघचालक श्रीगुरुजी ने ये शब्द जिनके लिए कहे थे, वे श्री बालासाहब ही थे। पूरा नाम था श्री मधुकर दत्तात्रेय देवरस । उनका जन्म हुआ था
दिसंबर, 1915 को नागपुर के एक मध्यवर्गीय परिवार में । तीन भाई थे, जिनमें दो श्री बालासाहब और श्री भाऊरावजी ने संघ कार्य को ही अपना जीवन लक्ष्य बना लिया । क्रीड़ा-पटु, वाक्-कुशल, 'मधुकर' डॉक्टर हेडगेवारजी की शाखा के "कुशपथक" में सम्मिलित थे, गटनायक के दायित्व से कार्यकर्ता के रूप में संघ पथ पर आगे बढ़े तो संघ के तृतीय सरसंघचालक तक का दायित्व निर्वाह किया। संघ गीत की परंपरा का प्रारंभ हो या अन्य प्रार्थना, गणवेश, कार्यक्रम व आज्ञाओं के परिवर्तन, सबके साक्षी रहे वे । शाखा पर नए-नए कार्यक्रम जोड़ना, वन-विहार, नैपुण्य वर्ग, शीत शिविर आदि सभी प्रकार से कार्यकर्ता निर्माण की सतत संस्कार विधि उनके सान्निध्य में चलती ही रही 21 वर्षों तक ।
आज संघ जीवन में सामाजिक समरसता का जो 'मधु मिश्रण' दिखाई देता है, वह दिया तो डॉ. हेडगेवार ने ही । श्रीगुरुजी ने उसे चखाया और पू. बालासाहब के समय तक वह संघ जीवन में एकरस हो गया । बालासाहब ने इस का प्रारंभ स्वयं के घर से किया था ।
उनके जीवन-निर्णय संघ की शुचिता, प्रामाणिकता एवं निःश्रेयस के गुण को और दृढ करते गए। बालासाहब ने तय किया कि अब संघ स्थान पर प. पू. डॉक्टरजी व श्रीगुरुजी के अतिरिक्त अन्य किसी के चित्र लगेंगे। अपना स्वयं का अंतिम संस्कार भी रेशिमबाग पर न होकर सामान्य श्मशान पर ही करने की इच्छा प्रकट करना आदि ऐसे निर्णय थे, जिन्होंने संघ परंपरा में आदर्श की स्थापना की है। सर्वाधिक महत्त्व का निर्णय तो शारीरिक अस्वस्थता के कारण, कार्यक्षमता अपर्याप्त हुई है, ऐसा जानकर आजीवन सरसंघचालक की परंपरा तोड़कर स्वयं ही 11 मार्च, 1994 को यह दायित्व प.पू. रज्जू भैया को सौंप दिया था, तथापि संघ कार्यों में संलग्नता आजीवन रही। 19 जून, 1996 को उन्होंने हमसे चिर विदा ले ली। संघ शाखा यानी क्या ?
"संघ की शाखा खेल खेलने अथवा कवायद करने का स्थान मात्र नहीं है, अपितु सज्जनों की सुरक्षा का बिन बोले अभिवचन है | तरुण को अनिष्ट व्यसनों से मुक्त रखनेवाली संस्कार पीठ है, समाज पर अकस्मात् आनेवाली विपत्ति अथवा संकटों में त्वरित निरपेक्ष सहायता मिलने का आज्ञाकेंद्र है। महिलाओं की निर्भयता एवं सभ्य आचरण का आश्वासन है, दुष्ट तथा राष्ट्रद्रोही शक्तियों पर अपनी धाक स्थापित करनेवाली शक्ति है और सबसे प्रमुख बात यह है कि समाज जीवन के विभिन्न क्षेत्रों को सुयोग्य कार्यकर्ता उपलब्ध कराने हेतु योग्य प्रशिक्षण देनेवाली विद्यापीठ है । "
- प.पू. बालासाहब देवरस
Post a Comment