व्यक्तिगत चारित्र्य महत्वपूर्ण है राष्ट्रीय चारित्र्य.

व्यक्तिगत चरित्र और राष्ट्रीय चरित्र


यदि कोई विशेष उदाहरण ही देना हो, तो गुजरात के राजा कर्ण के प्रधानमंत्री का दिया जा सकता है । वह वेद का ज्ञाता एवं अनेक कलाओं और शास्त्रों में पारंगत था। एक बार राजा ने अपनी कमजोरी के क्षण में एक सरदार की पत्नी का हरण कर लिया । इसपर प्रधानमंत्री गुस्से में आपे से बाहर हो गया और उसने राजा को इस पाप का दंड देने की प्रतिज्ञा की। उसे लगा कि उसकी पवित्रता और धर्म-ज्ञान को चुनौती दी गई है । उसने अपनी प्रतिज्ञा को पूर्ण करने के लिए कौन सा मार्ग अपनाया? वह जानता था कि गुजरात की उत्तरी सीमा पर मुस्लिम सेनाएँ खड़ी हैं। इसके पूर्व वे गुजरात को अधीन करने के लिए और उसे जीतने के लिए अनेकों निष्फल प्रयत्न कर चुके थे। 

प्रधानमंत्री सीधा मुगल सुल्तान से मिलने दिल्ली गया और अपने राजा को उसके पापपूर्ण कार्यार्थ दंडित करने के लिए सुल्तान की मदद माँगी । शत्रु इस स्वर्णिम अवसर को पाकर अत्यंत प्रसन्न हुआ। राज्य की सुरक्षा के सभी भेदों को जाननेवाले प्रधानमंत्री के द्वारा दी गई बहुमूल्य जानकारी के साथ शत्रु ने गुजरात पर आक्रमण किया। इसके परिणामस्वरूप कर्णावती का शक्तिशाली हिंदू सीमांत प्रहरी-राज्य, जिसने अनेक वर्षों तक काफी सफलतापूर्वक मुस्लिम आक्रमण को दक्षिण तक फैलने से रोका था, का पतन हो गया । तत्पश्चात् केवल गुजरात ही नहीं, वरन् संपूर्ण दक्षिण भारत मुस्लिम लुटेरे आक्रमणकारियों के पैरों में झुक गया । अंततः इस सबसे उस प्रधानमंत्री को क्या मिला? निस्संदेह रूप से राजा मारा गया, पर उसी के साथ प्रधानमंत्री के हजारों निजी संबंधी भी तलवार के घाट उतार दिए गए। उसकी आँखो के सामने अगणित महिलाओं का शील भ्रष्ट किया गया, मंदिरों को धूल में मिला दिया और जिस घर में वह वेदों का पाठ और ईश्वर की आराधना करता था, उसे गाय काटने के बूचड़खाने में परिवर्तित कर दिया गया। इसके सिवाय आनेवाले अनेकों शतकों तक अपनी मातृभूमि के एक बड़े भू-भाग को पराधीनता प्राप्त हुई।

हम देखते हैं कि एक ओर तो राजा का व्यक्तिगत चरित्र कुछ पतित था, पर उसका राष्ट्रीय चरित्र प्रखर था । दूसरी ओर प्रधानमंत्री व्यक्तिगत चरित्र की दृष्टि से पावित्र्य से पूर्ण था, प्रकृति से ईश्वर- भीरु था, किंतु उसमें राष्ट्रीय चारित्र्य का अभाव था, जिससे व्यक्ति संपूर्ण राष्ट्र की भलाई किसमें है— यह सोच पाता है और अपना सब कुछ, यहाँ तक कि पवित्रता और न्यायपरायणता की उसकी व्यक्तिगत भावनाएँ भी, राष्ट्र कल्याण की वेदी पर त्याग देने के लिए प्रेरित होता है । इस प्रकार राजा और प्रधानमंत्री दोनों ही, जिसके लिए दोनों ही के मन में प्रेम था, उस राष्ट्र के महान दुर्भाग्य के कारण बने।

वास्तव में उस प्रधानमंत्री द्वारा व्यक्तिगत चारित्र्य एवं धर्म का प्रकट किया गया विकृत भाव हमारे इतिहास की एकाकी घटना नहीं है। यह भावना काफी गहराई तक बद्धमूल है और उसने इन शताब्दियों में राष्ट्रद्रोहियों की एक संपूर्ण जमात को उत्पन्न किया है। वह ईश्वर का 'धर्मात्मा' पुजारी ही था, जिसने कि उस महमूद गजनवी का मार्गदर्शन किया और उसे सहायता दी जो सोमनाथ को भ्रष्ट करने के घोषित उद्देश्य के साथ निकला था । औरंगजेब का प्रसिद्ध सरदार जयसिंह, जो शिवाजी को नष्ट करने आया था, एक विद्वान, प्रखर ईश्वर- भक्ति और बुद्धि एवं हृदय के अनेक सद्गुणों से युक्त था । किंतु शिवाजी के द्वारा स्वदेश और स्वधर्म के नाम पर की गई अनुरोधपूर्ण प्रार्थना एवं क्रूर विदेशियों का दास रहने की अपेक्षा उनके विरोध में राष्ट्रभक्त शक्तियों का नेतृत्व करने का आमंत्रण व्यर्थ गया। राजा जयसिंह अपनी ईश्वरभक्ति तथा 'सम्राट के प्रति स्वामिभक्ति' की शपथ से ही पूर्ण संतुष्ट था । ईश्वरभक्ति की धारणा तथा व्यक्तिगत ईमानदारी और स्वामिनिष्ठा की भावना का यह कितना विपर्यस्त और भयंकर स्वरूप था? यह स्पष्ट है कि जब चरित्र के दोनों ही पहलू अभिव्यक्त होते हैं, तभी व्यक्ति और समाज प्रगति करता है, पनपता है। वे मानो एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक पर राष्ट्र का चिह्न अंकित है और दूसरे पर उसका मूल्य । किसी भी एक का घिसना उसकी उपयोगिता को समाप्त कर देता है ।


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