राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में प्रचारक कैसे निकलना शुरू हुई एक नज़र डालें।



प्रचारक शब्द संघ में आया:-

प्रारंभिक कुछ वर्षो तक संघ में यह 'प्रचारक' शब्द परिचित नहीं था। केवल संघ कार्य का ही अहोरात्रचिंतन करने वाले डॉक्टरजी ही एकमात्र स्वयंसेवक थे । अधिकांश शालेय छात्र किशोर स्वयंसेवक अपने अपने घरों में रहते और कार्यक्रम अथवा बैठक के समय एकत्र आते थे । आयु में कुछ बड़े स्वयंसेवकों में, बाबासाहब आपटे नागपुर की एक बीमा कम्पनी के कार्यालय में टंकलेखक थे। श्री दादाराव परमार्थ ने शालांत परीक्षा उत्तीर्ण करने के अनेक प्रयास किये किन्तु गणित जैसे 'भयानक' विषय के कारण असफल होकर, उसके पीछे लगे रहनेकी बजाय वे अधिकाधिक समय देकर संघ कार्य करने लगे । उनकी ओजपूर्ण भाषण शैली तथा अंग्रेजी भाषा पर प्रभुत्व के कारण, संघ कार्य करते समय उन्हें कभी भी विद्यालयीन अथवा महाविद्यालयीन उपाधियों की कमी महसूस नहीं हुई। इस समय संघ का कार्य नागपुर के बाहर भी पहुंच चुका था विदर्भ के वर्धा-भंडारा आदि जिलों में संघ की शाखाएं खुल गई थी। वहां की शाखाओं का संचालन स्थानीय कार्यकर्ता ही किया करते थे ।

भिन्न भिन्न गांवों में संघ की शाखाएं खुलने के दौर में उन सभी शाखाओं के कार्य में एकसूत्रता लाने की दृष्टि से प्रवास करने वाले कार्यकर्ताओं की आवश्यकता प्रतीत होने लगी । हर स्थान पर, चार-छह दिन रहकर, वहां के स्वयंसेवकों के साथ विचार-विनिमय कर उन्हें संघ कार्य से, दृढ़ता से जोड़ने तथा अपने दैनंदिन जीवन में संघ कार्य के लिये अधिकाधिक समय देने हेतु कार्य-प्रवण करने की आवश्यकता भी महसूस होने लगी । शुरू-शुरू में डॉक्टरजी अकेले ही प्रवास किया करते । उत्सव प्रसंगों पर अन्य कार्यकर्ता भी जाते थे । ज्येष्ठ कार्यकर्ताओं को अपने उद्योग व्यवसाय से अवकाश लेकर कुछ दिनों का प्रवास करना ही संभव होता । जिन गावों में पू. डॉक्टरजी के परिचित अथवा मित्र आदि रहते थे, वहां कार्य प्रारंभ करना आसान होता । किंतु जहां एकाध व्यक्ति ही परिचित होती वहां शाखा प्रारंभ कर संघकार्य स्थायी रूप से संचालित होने तक, बाहर के ही किसी कार्यकर्ता को प्रत्यक्ष वहां रहकर काम करना आवश्यक होता । ।

शालेय छात्र स्वयंसेवक कार्यकर्ताओं को, वार्षिक परीक्षा के पश्चात ग्रीष्मकालीन छुट्टियों में, ४-६ सप्ताह तक विदर्भ और महाकोशल क्षेत्र में जाकर संघ की नयी शाखाएं खोलने की आवश्यकता डॉक्टरजी द्वारा व्यक्त किये जाने पर उस दिशा में विचार क्रम प्रारंभ हुआ। कुछ कार्यकर्ताओं ने इस दृष्टि से अपनी तैयारी भी दर्शायी।

" बाहर जाकर कार्य करने वाले ऐसे स्वयंसेवकों को 'विस्तारक' कहा जाता । प्रतिवर्ष ऐसे ‘विस्तारक’ कार्यकर्ता ग्रीष्मकालीन छुट्टियों में अन्यत्र जाकर संघ कार्य का विस्तार करने लगे - नयी शाखाओं की संख्या बढ़ने लगी। डॉक्टरजी के साथ वार्तालाप में विस्तारकों तथा पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं की आवश्यकता स्वयंसेवकों को भी अनुभव होने लगी। बाहर गांव से डॉक्टरजी के नाम आए, उनके मित्रों के पत्रों को स्वयंसेवकों की बैठकों में पढ़ा जाता । इन पत्रों में लिखा होता - "हमारे गांव में संघ की शाखा शुरू की जा सकती है। कृपया किसी योग्य कार्यकर्ता को भेजिये । उसके निवास और भोजन आदि की व्यवस्था यहां की जायेगी ।" श्री दादाराव परमार्थ, श्री बाबासाहेब आपटे, श्री रामभाऊ जामगड़े व श्री गोपाळराव येरकुंटवार आदि ज्येष्ठ कार्यकर्ताओं ने अपने व्यक्तिगत जीवन की आशा-आकांक्षाओं को एक ओर रखकर, संघ कार्य के लिये प्रवास पर जाने की सिद्धता दर्शायी | १९३२ के उत्तरार्ध में, डॉक्टरजी ने इन कार्यकर्ताओं को पूर्णकालिक कार्यकर्ता के रूप में अन्यत्र भेजने की योजना बनाई। संघ कार्य के इस प्रकार होने वाले विस्तार में, डॉक्टरजी को कभी किसी स्वयंसेवक को इस प्रकार का आदेश देते किसी ने नहीं सुना कि 'तुम अपने व्यक्तिगत जीवन की चिंता छोड़कर पूर्ण कालिक कार्यकर्ता बनकर संघ कार्यार्थ निकलो ।' डॉक्टरजी का स्वयं का जीवन संघ से एकरूप हो गया था । उनके सहवास और वार्तालाप से संघ कार्य के असाधारण महत्व तथा उसके लिये अपना जीवन समर्पित करने की प्रेरणा ग्रहण कर स्वयंसेवक जब स्वयं अपनी सिद्धता डॉक्टरजी के सामने व्यक्त करते तभी डॉक्टरजी उस कार्यकर्ता की उस प्रकार की योजना करते | इस प्रकार श्री दादाराव परमार्थ को पुणे, श्री गोपाळराव येरकुंटवार को सांगली (महाराष्ट्र) और श्री रामभाऊ जामगडे को यवतमाल (विदर्भ) में पूर्णकालिक संघ कार्यकर्ता के रूप में भेजने की योजना बनी। इन सभी पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं को सभी स्वयंसेवकों की उपस्थिति में पू. डॉक्टरजी ने भावपूर्ण शब्दों में बिदाई दी। इस प्रकार के कार्यकर्ताओं को ‘प्रचारक' के नाम से अन्यत्र भेजने की पद्धति संघ में शुरू हुई। 

संघ कार्य में वृद्धि की गति बढ़ने लगी । १९३७ के आरंभ में विदर्भ व महाराष्ट्र के प्रमुख स्थानों पर, महाकोशल के ४-६ स्थानों पर तथा उत्तर प्रदेश के बनारस में संघ की शाखाएं शुरू हो चुकी थी। किंतु पंजाब, दिल्ली, उत्तरप्रदेश के अन्य प्रमुख शहरों में संघ का कार्य शुरू करने की आवश्यकता अनुभव होने लगी। इस कारण, नागपुर के स्वयंसेवकों में से जिन्हे इन प्रांतों के प्रमुख स्थानों पर जाना संभव हो, उन्हे उच्च शिक्षा के लिये वहां के महाविद्यालयों में प्रवेश लेना चाहिये और वहां शिक्षा ग्रहण कर साथ साथ संघ की शाखाएं खोलने का प्रयास करना चाहिये । वार्तालाप में डॉक्टरजी द्वारा यह विचार व्यक्त किये जाने पर, योजनापूर्वक १९३७ के जुलाई माह में श्री भाऊराव देवरस को B.Com;Law करने के लिये लखनऊ; श्री कृष्णा जोशी को महाविद्यालयीन शिक्षा ग्रहण करने सियालकोट (पंजाब), श्री दिगम्बर पातुरकर को लाहौर (प. पंजाब), श्री मोरेश्वर मुंजे को उच्च शिक्षा प्राप्त करने रावलपिंडी में शिक्षा ग्रहण करने के साथ साथ संघ कार्य हेतु भेजा गया। इसी प्रकार अपनी महाविद्यालयीन शिक्षा नागपुर में समाप्त करने के बाद श्री वसंतराव ओक को दिल्ली, श्री बापूराव दिवाकर, श्री नरहरि पारखी और मुकुंदराव मुंजे को बिहार के पटना, दानापुर और मुंगेर में प्रचारक के रूप में डॉक्टरजी ने भेजा । श्री नारायण तटें को प्रचारक के रूप में ग्वालियर भेजा गया । १९३८ में श्री एकनाथ रानडे M.A. होने के बाद प्रचारक के रूप में महाकोशल के जबलपुर में गये - उनके साथ प्रल्हादराव आम्बेकर भी गये । १९३९ में श्री विठ्ठलराव पत्की को प्रचारक के रूप में, कलकत्ता भेजा गया। श्री जनार्दन चिंचाळकर की नियुक्ति मद्रास में की गयी। इन सभी पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं को प्रचारक नाम से संबोधित किया जाने लगा। इस प्रकार संघ के कार्य में 'प्रचारक' शब्द रूढ़ हुआ ।

किसी प्रकार का आदेश नहीं, बल्कि स्वयं अपनी इच्छा से, अपने व्यक्तिगत जीवन की चिंता न करते हुए संघ कार्य हेतु प्रचारक निकलने की पद्धति स्वयंसेवकों में अपने आप विकसित होने लगी- यह बात आज आश्चर्यजनक प्रतीत होती है, क्योंकि प्रचारक बनकर जाने का आदेश कभी डॉक्टरजी ने किसी को नहीं दिया। इसके विपरीत जब कोई स्वयंसेवक प्रचारक के रूप में कार्य करने की सिद्धता प्रकट करता तो डॉक्टरजी पहले उसके घर की परिस्थिति और कार्य सम्बन्धी उसके दृढ़ निश्चय के बारे में विस्तारपूर्वक चर्चा करने के बाद ही उसके बारे में निर्णय लेते। डॉक्टरजी के सहवास और वार्तालाप में विभिन्न स्थानों से कार्य शुरू करने हेतु प्रचारक भेजियें - इस आशय के आनेवाले पत्रों के वाचन के बाद होनेवाली चर्चा से स्वयंसेवकों में संघ कार्यार्थ सर्वस्व अर्पण करने की तीव्र भावना अपने आप उत्पन्न होती और स्वयंसेवकों के मन में संघ कार्य के लिये अधिकाधिक समय देने की प्रेरणा जागती । अपने जीवन में करने योग्य सर्वश्रेष्ठ कार्य केवल संघ कार्य ही है, यह अनुभूति स्वयंसेवकों को होने लगी। अपना जीवन पुष्प केवल संघ कार्यकरते हुए अपनी मातृभूमि के चरणों में समर्पित करने में ही जीवन की सार्थकता है - यह भावना स्वयंसेवक के हृदय में प्रबल होते ही, वह स्वयंसेवक प्रचारक के रूप में निकलने की सिद्धता स्वयं डॉक्टरजी के समक्ष व्यक्त करता ।

संघ की कार्यपद्धति की यह अनोखी विशेषता है, जिसे डॉक्टरजी ने बड़ी कुशलता से विकसित किया ।

 - संघ कार्यपद्धति का विकास

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