संघ में कैसे आईं संघ प्रार्थना आइए जानते हैं।
विदर्भ - महाराष्ट्र तथा महाकोशल में रायपुर जैसी शाखाओं को छोड़कर अन्य प्रांतों में १९३७ तक केवल बनारस में ही शाखा स्थापित हो चुकी थी। भाई परमानंदजी की प्रेरणा से लाहौर से एक-दो स्वयंसेवक सन् १९३४-३५-३६ के नागपुर संघ शिक्षा वर्ग में भाग लेने आये थे किंतु वहां शाखाएं शुरू नहीं हो पायीं थी। १९३७ के बाद ही अन्य प्रांतों में स्वयंसेवक शिक्षार्थी और प्रचारक बन कर गये, तभी उनके प्रयासों से पंजाब, दिल्ली, उत्तरप्रदेश, बिहार, मद्रास व बंगाल में संघ की शाखाएं खुलने लगीं। उन दिनों इन सभी प्रांतो की शाखाओं में एक मराठी श्लोक व एक हिंदी श्लोक से मिलकर बनी प्रारंभिक प्रार्थना ही होती थी। प्रार्थना का अर्थ बौद्धिक वर्गों में स्वयंसेवकों को समझाकर बताया जाता। किंतु, जब अखिल भारतीय स्तर पर संघ के कार्य का विस्तार होने लगा तो संस्कृत भाषा में, सरल किंतु अर्थपूर्ण शब्दों से नयी प्रार्थना की आवश्यकता अनुभव में आने लगी । इसी प्रकार समता के कार्यक्रमों व अन्य शारीरिक कार्यक्रमों की मराठी व अंग्रेजी भाषा में दी जाने वाली आज्ञाओं का संस्कृत अनुवाद करना भी आवश्यक प्रतीत हुआ । इस पर विचार करने के लिये १९३९ के फरवरी माह में, नागपुर से ५० कि.मी. दूरी पर स्थित सिंदी (जि. वर्धा) में एक बैठक आयोजित की गई। इस बैठक की सारी व्यवस्था वहां के संघचालक श्री नाना साहब टालाटुले के बाड़े में की गई। इस विचार-विनिमय में, डॉक्टरजी, पू. श्री गुरूजी, श्री बाळासाहब देवरस, मा. अप्पाजी जोशी, श्री विठ्ठलराव पत्की, श्री नानासाहब टालाटुले, श्री तात्याराव तेलंग, श्री बाबाजी सालोडकर तथा श्री कृष्णराव मोहरील ने भाग लिया। बैठक की ऊचित व्यवस्था का दायित्व श्री बबनराव पंडित पर सौंपा गया। इस बैठक में, १९२५ से १९३९ तक क्रमशः विकसित कार्यपद्धति सुनिश्चित की गई। सभी आज्ञाएं संस्कृत में देने का निश्चय हुआ। संस्कृत में प्रार्थना तैयार करने के सम्बन्ध में भी विचार-विनिमय हुआ ।
संघ की प्रार्थना में जिन विचारों को सुस्पष्ट शब्दों में प्रकट करना है, उनका क्रम भी इसी बैठक में निश्चित किया गया। आज जो संस्कृत भाषा की प्रार्थना है, उसी का मराठी - गद्य स्वरूप पहले तय हुआ जिसे बाद में संस्कृत में लिपिबद्ध करने की दृष्टि से मराठी - गद्य की प्रतियां निकालकर डॉक्टरजी ने महाराष्ट्र प्रांत संघचालक श्री का. भा. लिमये (सांगली) तथा विनायकराव आपटे (पुणे) के पास इस सूचना के के साथ भिजवाई कि वे किसी जानकार संस्कृत पंडित के द्वारा उनका संस्कृत अनुवाद कर यथा शीघ्र नागपुर भिजवायें | मराठी गद्य की एक प्रति नागपुर के संस्कृत विद्वान व मोहिते शाखा के कार्यवाह श्री नरहर नारायण भिड़े के पास भी भिजवाई तथा उनके गुरू महामहोपाध्याय डॉ. केशव गोपाळ ताम्हन से विचार विनिमय कर, संस्कृत अनुवाद तैयार करने का आग्रह किया। श्री भिड़े द्वारा किया गया संस्कृत - अनुवाद सर्वोत्कृष्ट प्रतीत होने से सभी ने उसे स्वीकार किया। श्री भिड़े को संस्कृत का गहरा अध्ययन था, इसलिये केवल एक शब्द में थोड़ा परिवर्तन उन्होने सूचित किया। वह परिवर्तन इस प्रकार था - "अभ्युदय व निःश्रेयस' - इन दोनों की प्राप्ति के श्रेष्ठ साधन के रूप में वीरव्रत' - इसमें अभ्युदय शब्द का उपयोग करते समय श्लोक की पंक्ति में, एक मात्रा कम होने से जो कमी रह जाती है, उसकी पूर्ति हेतु उसकी बजाय 'समुत्कर्ष' शब्द रखा गया - जिसे सभी ने सहर्ष स्वीकार किया । १९४० के प्रारंभ में, यह संस्कृत प्रार्थना तैयार हुई जो पुणे के संघ शिक्षा वर्ग में डॉक्टरजी की उपस्थिति में और नागपुर के संघ शिक्षा वर्ग में पू. गुरूजी की उपस्थिति में कही गयी । पू. श्री गुरूजी उस समय नागपुर संघ शिक्षा वर्ग के सर्वाधिकारी थे। संघ शिक्षा वर्गों के बाद सम्पूर्ण भारत की शाखाओं में संस्कृत प्रार्थना का प्रारंभ हुआ।
हमें, यह जानकर आश्चर्य होना स्वाभाविक है कि संघ कार्य में प्रार्थना जैसा महत्त्वपूर्ण विषय संघ प्रारंभ होने के १५ वर्षो बाद सुनिश्चित हुआ । इसका प्रमुख कारण यही था कि संघ कार्य के लिये पूर्णतया अनुकूल कार्यपद्धति, स्वाभाविकतया, सभी स्वयंसेवकों से विचार-विनिमय के बाद ही, हर बार सुनिश्चित की गई। प्रत्यक्ष कार्य करते समय, जो-जो आवश्यक प्रतीत हुआ, उस सम्बन्ध में सामूहिक चिंतन के निष्कर्ष से ही संघ की कार्यपद्धति विकसित होती गई। पू. डॉक्टरजी के कार्यकर्ताओं के साथ अनौपचारिक वार्तालापों से ही हुआ संघ की कार्यपद्धति का यह विकास संघ कार्य की एक विशेषता के रूप में आज हम सबके सामने हैं।
शारीरिक शिक्षाक्रम में पहले मराठी की आज्ञाएं होती थीं। आज हम- 'क्रमिका एक कुरू ' यह जो आज्ञा देते हैं, पहले मराठी भाषा में वह इस प्रकार दी जाती थी - 'रामरामी एक सुरू' । 'षट्पदी ऊर्ध्वभ्रमण चतुष्क' की बजाय उन दिनों 'चौरंगी उडव मार चौक' - यह आज्ञा दी जाती। इस प्रकार शारीरिक शिक्षाक्रम की सारी आज्ञाएं श्री बाबाजी सालोडकर और श्री नरहर नारायण भिडे के सहयोग से संस्कृत में की गई और इन आज्ञाओं की शुद्ध संस्कृत शब्द-रचना संघ शिक्षा वर्गों के माध्यम से सर्वत्र प्रचलित हुई।
समता के लिये उपयोग में लायी जाने वाली अंग्रेजी-आज्ञाओं का भी - श्री न.ना. भिडे ने, संस्कृत में सुंदर भाषान्तर किया । यथा Formation के लिये व्यूह, March Past प्रदक्षिणा संचलन, Advance in Review order के लिये प्रत्युत प्रचलन, Line ततिब्यूह; Halt स्तभ, form fours चतुर्व्यूह formation - आदि संस्कृत के शब्द प्रयोगों की हम सभी को आदत हो गई। भीव के लिये घोष; Bugle के लिये शंख, Flute के लिये वंशी, Side drum के लिये आनक आदि संस्कृत नाम आज सर्वपरिचित हो चुके हैं।
इस प्रकार आज्ञाओं में यथा समय संस्कृत परिवर्तन, नये-नये कार्यक्रमों की स्वीकृति, १५ वर्षो बाद संस्कृत में प्रार्थना का सुनिश्चय आदि क्रमशः होने वाले परिवर्तनों को देखकर मन में यह प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि इसमें संघ की कार्यपद्धति की कौनसी विशेषता है ? हर बार अपने सहयोगी कार्यकर्ताओं और स्वयंसेवकों के साथ वार्तालाप के पश्चात सर्वसम्मति से ही यह परिवर्तन होता गया है - इसीलिये सभी ने उसे मनःपूर्वक स्वीकार भी किया। स्वाभाविकतया पू. डॉक्टरजी ने अपनी प्रतिभा और कार्यकुशलता से सभी को स्वीकार्य ऐसा परिवर्तन, आवश्यकतानुसार संघ कार्य में लाया है - यही संघ की कार्यपद्धति की विशेषता है। कोई भी परिवर्तन सर संघचालक ने आदेश देकर नहीं किया सबके साथ खुले दिल - से विचार विनिमय कर, सबकी सहमति से ही कोई परिवर्तन करने की संघकार्य में आदत डालना यही कार्यपद्धति की विशेषता है।
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