RSS राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हर कार्य के पूर्व योजना बनाने में निपुण है |
संघ कार्य में हरेक बात का विचार करते समय, पू. डॉक्टरजी ने सम्बन्धित स्वयंसेवकों के साथ विचार-विनिमय कर सबके सहयोग से कार्य का स्वरूप और कार्यवाही सुनिश्चित करने की पद्धति प्रारंभ से ही प्रचलित की। किसी भी कार्यक्रम का अयोजन करने से पूर्व अनौपचारिक वार्तालाप से सर्वस्पर्शी, सर्वांगीण विचार हुआ करता । कार्य का ब्यौरा तय करते समय भिन्न भिन्न काम का दायित्व भी अलग अलग स्वयंसेवक के जिम्मे सौंपा जाता - सम्बन्धित स्वयंसेवक के गुणों के संवर्धन और विकास का पूरा अवसर दिया जाने पर ध्यान दिया जाता । उदाहरणार्थ, यदि शिबिर का आयोजन करना हो तो उचित स्थान की खोज करना, वहां रहने-खाने-पीने आदि की व्यवस्था करना, प्रकाश, साफ-सफाई, सामान लाने व स्वयंसेवकों के आने-जानेके लिये यथोचित व्यवस्था, शिविर के कार्यक्रमों की निर्दोष रचना, शिविरकाल में, वहां चिकित्सा सुविधा, शारीरिक - बौद्धिक - मनोरंजन आदि कार्यक्रमों का नियोजन - ऐसे हर काम के लिये सुयोग्य स्वयंसेवक पर जिम्मेदारी सौंपना - आदि सारी बातें स्वयंसेवक अपना अपना दायित्व समझकर मनःपूर्वक अच्छे ढंग से निभाने का प्रयत्न करता । इससे कोई भी कार्यक्रम, चाहे वह कितना भी भव्य क्यों न हो, सब मिलकर, परस्पर सहयोग और प्रयत्नों से अपने-अपने जिम्मे जो काम होता, उसे अच्छे ढंग से निभाने और कार्यक्रम को सफल बनाने का अनोखा समाधान हर स्वयंसेवक को होता | इस प्रकार संघ में हर कार्यक्रम के पूर्व नियोजन हेतु सामूहिक चिंतन और सामूहिक प्रयास की पद्धति प्रारंभ हुई।
इस प्रकार का कोई कार्यक्रम समाप्त होने पर, सब मिलकर इस बात का विचार करते कि कार्यक्रम नियोजित योजनानुसार सम्पन्न हुआ या कहीं कोई दोष, त्रुटि या कमी तो नहीं रह गई। जिस विभाग में काम करते समय कोई कठिनाई आयी होगी, उसका पता लगाकर अगली बार, पहले से ही उसका ध्यान रखा जाता । कार्यक्रम पर जो खर्च हुआ होगा - प्रत्येक पैसे का पाई-पाई हिसाब लिखकर रखने की आदत भी डॉक्टरजी ने स्वयंसेवकों में डाली । कहां अनपेक्षित ढंग से खर्च करना पड़ा, कहां कौनसी अकल्पित कठिनाई का सामना करना पड़ा - उसे किस तरह दूर किया जा सकता था - आदि बातों का विचार किया जाता । इस पद्धति से हर कार्यक्रम उत्तरोत्तर निर्दोष और प्रभावी ढंग से होने लगे ।
पू. डॉक्टरजी द्वारा उन दिनों प्रचलित की गई पद्धतियों का आज जब हम विचार करते हैं, तो कभी कभी ऐसा लगता है कि हर काम में चाहे वह कितना ही छोटा या बड़ा हो, चाहे व अत्यन्त मामूली क्यों न हो, डॉक्टरजी द्वारा स्वयं ध्यान देने तथा सभी सम्बन्धित स्वयंसेवकों के साथ सामूहिक चर्चा करने की क्या वास्तव में आवश्यकता थी ? किन्तु प्रारंभिक काल में ही हर कार्यक्रम सबके सहयोग से सफल बनाने की यह पद्धति कितनी महत्वपूर्ण है, इसका अनुभव आज भी हमें होता है। हाल के वर्षोंमें, अपने ज्येष्ठ स्वयंसेवकों ने एकात्मता रथ यात्रा का आयोजन किया था । मानसरोवर और गंगोत्री जैसे उद्गम स्थलों से सिन्धु और गंगा का जल एकत्र कर दक्षिणी छोर पर रामेश्वर और कन्याकुमारी में स्थित मंदिरों में उस जल से अभिषेक और इधर पूर्व में परशुराम कुंड के जल से पश्चिमी तट पर स्थित सोमनाथ मंदिर में अभिषेक करने का संकल्प लेकर दो विशाल रथ यात्राओं का अभूतपूर्व आयोजन किया गया। ये दोनों रथ यात्राएं सम्पूर्ण भारत में सर्वत्र चर्चा और कौतूहल का विषय बनीं थी । उत्तरदक्षिण और पूर्व-पश्चिम जानेवाली इन दोनों रथ यात्राओं का निर्धारित दिन, निश्चित समय पर नागपुर में संगम हुआ। हजारों किलोमीटर की दूरी तय करने वाली इन रथ यात्राओंमें, स्थान स्थान पर स्वागत, भाषणों आदि के सारे कार्यक्रम पूर्व निर्धारित समय और स्थान पर सफलतापूर्वक सम्पन्न हुए - इसमें संघ के स्वयंसेवकों को स्थानीय जनता का भी अभूतपूर्व सहयोग प्राप्त हुआ। यह कार्यक्रम विश्व हिंदू परिषद ने आयोजित किया था | इस पर सरकार की प्रतिक्रिया बहुत अर्थ रखती है - उस समय के अखिल भारतीय ख्याति के एक अंग्रेजी दैनिक में इन रथयात्राओं के बारें में प्रकाशित हुआ "the programme was executed with Military precision." संघ के शिविर अथवा शाखा के अन्य कार्यक्रमों को, पूर्व-नियोजन और सबके सहयोग से सफल बनाने की डॉक्टरजी द्वारा प्रचलित कार्य-पद्धति के द्वारा ही यह संभव हो सका ।
इस पद्धति के सुपरिणाम भी आज हमें दिखाई देते हैं। प्रत्येक कार्यक्रम के सभी अंगों का बारीकी से ध्यान रखकर, अपनी-अपनी क्षमता और विशेष गुणों का पूर्ण उपयोग करते हुए परस्पर- पूरक 'टीम वर्क' की भावना से, उसे सफल बनाने की आदत स्वयंसेवकों में निर्माण हुई। इससे बड़े से बड़े कार्यक्रम भी आसानी से और अच्छे ढंग से सम्पन्न होते । सबने मिलकर, कार्य के हित को ध्यान में रखते हुए वस्तुनिष्ठ विचार कर योजना तैयार की - इसलिये कार्यक्रम की सफलता का श्रेय भी सभी स्वयंसेवकों को मिलता - अगर कहीं कोई त्रुटि रह गई हो तो अगली बार वह न रहने पाये, इसका भी सब मिलकर विचार करते। किसी की भूल को सब मिल कर खुशी से स्वीकार करते और दुबारा वह भूल न होने पाये, इसका निश्चय करते । गुण-दोषों से युक्त स्वयंसेवकों के सामूहिक चिंतन और मिलकर कार्य करने की इस पद्धति से दोष-रहित कार्य खड़ा करने की परम्परा चल पड़ी । इससे स्वयंसेवकों के गुणों में निरंतर वृद्धि और दोष क्रमशः दूर होने लगे | स्वयंसेवकों का दृष्टिकोण व्यापक बनने लगा। एक हृदय से काम करने वाले स्वयंसेवकों की टीम देखकर लोगों का उनके प्रति और संघ के प्रति विश्वास दृढ़ होने लगा। व्यक्तिशः स्वयंसेवकों के प्रति भी समाज में विश्वासार्हता बढ़ने लगी। ।
-संघ कार्यपद्धति का विकास
Post a Comment