RSS का दैनिक कार्य कैसे प्रारम्भ हुआ।


संघ का दैनंदिन कार्य 

संघ कार्य का प्रारंभ तो वैसे १९२५ के विजयादशमी के मुहूर्त पर हुआ, किन्तु हम सब की परिचित संघ की शाखा उसके कुछ माह बाद ही प्रारंभ हुई। दैनंदिन शाखा शुरू होने के पूर्व स्वयंसेवक सायंकाल व्यायाम शाला में जाया करते थे। इस व्यायाम शाला के संचालक श्री अण्णा खोत, श्री दत्तोपंत मारुळकर, श्री अण्णा सोहनी ये सभी डॉक्टरजी के मित्र थे । व्यायाम शाला में लाठी, मलखंब.आदि कार्यक्रम भी होते । सायंकाल पू. डॉक्टरजी भी व्यायाम शाला में जाते और स्वयंसेवकों से सम्पर्क रखते । रात्रि में भोजन के बाद ये स्वयंसेवक डॉक्टरजी के घर एकत्र होते और देर रात्रि तक अनौपचारिक वार्तालाप, विनोद, उद्बोधन आदि होता रहता । स्वयंसेवकों की संख्या बढ़ने लगी । इस कारण श्री दत्तोपंत रुळकर व श्री अण्णा खोत को उन सभी के शारीरिक शिक्षण की व्यवस्था करना कठिन होने लगा । इन दो शिक्षकों के बीच स्पर्धा और बेबनाव बढ़ने लगा। इसका स्वयंसेवकों पर होनेवाला विपरीत परिणाम डॉक्टरजी की दृष्टि से छूटना असंभव ही था । इसलिये मोहिते के जर्जर बाड़े की जगह साफ कर वहां स्वयंसेवकों के लिये अलग से शारीरिक कार्यक्रम शुरु करने का विचार डॉक्टरजी ने किया और वहां शिक्षक के रूप में श्री अण्णा सोहनी के जिम्मे काम सौंपा ।

इसी समय संघ के कार्य संबंधी चिंतन का एक और पहलू डॉक्टरजी और स्वयंसेवकों के बीच अनौपचारिक वार्तालाप से विकसित हुआ। सायंकाल व्यायाम शाला में शारीरिक कार्यक्रम और रात्रिमें डॉक्टरजी के घर एकत्रित होकर परस्पर वार्तालाप, हास्य- विनोद तथा छुट्टी के दिन दोपहर में भी विचार विनिमय के कार्यक्रम चलते थे | उत्सव प्रसंग पर भाषण भी होते थे । किन्तु संघ स्वयंसेवकों का प्रमुख कार्यक्रम याने पू. डॉक्टरजी के साथ विचार-विनिमय ही होता । चर्चाओं में यह बात उठी कि जिसमें स्वयंसेवक सहभागी हो सकें, ऐसे संघ के और कौन से कार्यक्रम होने चाहिये । यह सभी महसूस करते थे कि केवल बौद्धिक कार्यक्रम और बैठकों में होनेवाली चर्चा मात्र ही हमारा कार्य नहीं । सत्ताधारी अंग्रेज बड़े चतुर हैं। स्वयंसेवकों की इन बैठकों को 'गुप्त-कार्य' घोषित कर वे उन पर रोक लगा सकते हैं। अतः अपने कार्य का स्वरूप खुली जगह में सबके सामने चलने वाला होना चाहिये। उन दिनों सार्वजनिक खुले कार्यक्रम के रूप में सबके परिचित वार्षिक सम्मेलन आदि ही हुआ करते। ऐसे सम्मेलन दो-चार दिन तक चलते । इनमें भाषण आदि हुआ करते। इसी प्रकार का कोई कार्यक्रम संघ को भी हाथों में लेना चाहिये । यह विचार व्यक्त किया गया । किंतु ऐसे सम्मेलन तो अधिक से अधिक ३-४ दिनों तक चलेंगे । फिर आगे वर्ष भर क्या करना ? इस पर एक स्वयंसेवक ने सुझाया कि वर्ष में एक बार सभा-सम्मेलन का आयोजन करने की बजाय हर रविवार को खुले मैदान में स्वयंसेवकों का एकत्रीकरण आयोजित किया जाए । यह कल्पना कुछ सुविधा की प्रतीत हुई। किंतु अपने संघ के कार्य में केवल शारीरिक-बौद्धिक कार्यक्रम ही पर्याप्त होंगे। हमें तो स्वयंसेवकों को संस्कारित करना है -उनके हृदय में विशुद्ध देशभक्ति की भावना जागृत करनी है - समाज में सम्पर्क साधकर, हिंदु समाज संघ कार्य के लिये अनुकूल बने, ऐसा प्रयत्न करना है - स्वयंसेवक के जीवन में इसकी आदत डालने के लिये क्या सप्ताह में एक बार, छुट्टी के दिन सुविधाजनक प्रतीत होने वाला एकत्रीकरण का कार्यक्रम पर्याप्त रहेगा क्या? विचारविनिमय के प्रवाह को डॉक्टरजी ने उचित दिशा में मोडा ।

स्वयंसेवकों मे आयी जागृति उनका स्थायी भाव बने और उनके द्वारा समाज जीवन को भी वही दिशा मिले, इसके लिये स्वयंसेवकों की विश्वासार्हता बढ़नी चाहिये - अतः स्वयंसेवकों को प्रतिदिन एक निश्चित समय पर एकत्रित आकर संघ के कार्यक्रम करना आवश्यक है। किसी भी संस्कार को अंतःकरण में सुदृढ़ बनाने के लिये नित्य, निश्चित समय पर उसका अभ्यास करना ही सर्वोत्तम मार्ग है। जिस प्रकार शरीर को हृष्ट-पुष्ट बनाने के लिये नित्य रूप से व्यायाम करना जरूरी होता है, ठीक उसी प्रकार मन पर शुद्ध और ओजस्वी विचारों के संस्कार हेतु प्रतिदिन अध्ययन करना पड़ता है । बुद्धि को कुशाग्र बनाने के लिये नित्य अच्छे ग्रंथों का पठन करना आवश्यक है । इसी प्रकार संघ के संस्कार हेतु नित्य, निश्चित समय पर एकत्रित आकर कुछ शारीरिक, कुछ बौद्धिक कार्यक्रम आग्रह पूर्वक करने होंगे। नित्य, निश्चित समय पर कार्यक्रम करने की आदत लगी तो अपने आप ही नित्य याद रखकर शाखा जाने की आदत भी बन जाती है। इस प्रकार दैनंदिन शाखा की आवश्यकता स्पष्ट होते ही मोहिते संघ पर नित्य सायं शाखा लगनी प्रारंभ हुई।

उन दिनों प्रति दिन एकत्र आकर राष्ट्र भक्ति का संस्कार प्राप्त करने की प्रक्रिया किसी भी सामाजिक कार्यक्रम में प्रचलित नहीं थी । इस कारण दैनंदिन संघ शाखा और स्वयंसेवकों द्वारा खुले मैदान मे किये जाने वाले कार्यक्रमों को देखकर प्रारंभ में लोगों को बड़ा अनोखा लगता था। धीरे-धीरे स्वयंसेवकों को, आसपास के लोगों और अंग्रेज शासन कर्ताओं को यह लगने लगा कि यह तो रोज की ही बात है। इसके बारे में सरकार की जिज्ञासा भी धीरे-धीरे कम होने लगी । शाखा में, पौरुष व साहस निर्माण करने वाले तत्कालीन प्रचत्रित दंड, खड्ग आदि के कार्यक्रम होने लगे। अनुशासन लाने की दृष्टि से श्री मार्तंड राव जोग के सहयोग से गणवेश में प्राथमिक समता का कार्यक्रम ही होता। इस बात पर भी बल दिया गया कि हर स्वयंसेवक अपना गणवेश स्वयं अपने खर्च से तैयार करे - स्वयंसेवकों को प्रारंभ से ही स्वावलम्बन की सीख दी गई। इस प्रकार सायंकाल का एक घंटा राष्ट्रकार्य के लिये समर्पित है, इस भावना से स्वयंसेवक प्रतिदिन सायंकाल शाखा में आने लगे ।

डॉक्टरजी शुरू से ही इस बात का ध्यान रखते कि संघ का प्रत्येक कार्यक्रम समय पर ही हो। इस कारण एकत्रीकरण शाखा, बैठक और निश्चित किया जाने वाला हर कार्यक्रम समय पर शुरू होता । इससे जहां स्वयंसेवकों में अनुशासन की भावना जागी वहीं कार्यक्रम देखने वाले लोगों में भी स्वयंसेवकों के प्रति विश्वास वृद्धिगत होने लगा । बारिश में भी नित्य समय पर शाखा लगती और नित्य के कार्यक्रमों और प्रार्थना के पश्चात् ही शाखा छूटती। मौसम की प्रतिकूलता के बावजूद खुले मैदान में शाखा के कार्यक्रम निश्चित रूप से, समय पर ही होने के कारण स्वयंसेवकों में धीरे-धीरे हर संकट से मुकाबला करते हुए संघ कार्य अबाध गति से जारी रखने का आत्म विश्वास भी बढ़ते गया ।

समय के सन्दर्भ में, उन दिनों लोगों में बातचीत करते समय 'हिन्दुस्थानी (Indian Time) समय' और 'अंग्रेजी समय' (English Time) - ये दो शब्द प्रयोग प्रचलित थे। 'अंग्रेजी समय' का अर्थ होता ठीक निर्धारित समय पर कार्यक्रम को होना और 'हिन्दुस्थानी समय' निर्धारित समय से आगे या पीछे होने वाले कार्यक्रमों के सन्दर्भ में कहा जाता । अक्सर देरी से होने वाले कार्यक्रमों के सन्दर्भ में ही व्यंग से सछ्श्वीछ ल्ब्ल् कहकर उसका उल्लेख किया जाता। डॉक्टरजी कहा करते कि अनुशासित जीवन का, कोई भी कार्य निर्धारित समय पर ही करने का अंग्रेजों का गुण महत्वपूर्ण है - वह हमें भी ग्रहण करना चाहिये । 

संघ का कोई भी कार्यक्रम, चाहे वह नित्य का शाखा का हो या उत्सव आदि प्रसंग का सार्वजनिक कार्यक्रम हो- निमंत्रण पत्र में उल्लेखित निश्चित समय पर ही शुरू होगा - यह विश्वास लोगों में निर्माण होने लगा। इस कारण समाज के निमंत्रित लोगों को भी संघ के कार्यक्रमों में समय पर आने की आदत लगी। इसी प्रकार संघ के तय कार्यक्रम में, स्वयंसेवकों की भांति शांति से बैठकर अनुशासन का पालन करने की आदत भी लोगों में निर्माण होने लगी ।

 - संघ कार्यपद्धति का विकास

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