RSS में भगवा ध्वज को गुरु क्यों माना गया आइए जानते हैं ? आइये जानते है |


हमारा आदर्श :-- 

भगवा ध्वज ही हमारा गुरू है और वही संघ के विचारों का प्रतीक होने से हमारा आदर्श भी है। यह विचार बुद्धि और भावना से ग्रहण के बाद भी स्वयंसेवकों को अपने व्यावहारिक जीवन में एक कठिनाई बची रहती। जिनकी और देखकर उनके जैसा अपना भी जीवन बने, ऐसे किसी महान पुरूष के जीवन का अध्ययन कर, अपने जीवन में मार्गदर्शन प्राप्त करना आसान होता है। ऐसे किसी आदर्श महान व्यक्ति के जीवन का अनुसरण करना उसके लिये आसान होता है। केवल सिद्धांतों का चिंतन कर अथवा उसके प्रकट स्वरूप भगवा ध्वज के बारे में विचार कर अपने जीवन का व्यवहार सुनिश्चित करना तो बड़ा कठिन कार्य है। अनेक स्वयंसेवकों के मन में उठते इस प्रश्न की जानकारी डॉक्टरजी को मिली।

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शाखा में भिन्न भिन्न प्रकार के - दंड, खड्ग शूल, खेल, योग जैसे साहस और आत्मविश्वास बढाने वाले कार्यक्रम हुआ करते । अनुशासन का संस्कार दृढ करने के लिये गणवेश पहिनकर समता, संचलन आदि कार्यक्रम करने की पद्धति थी। जैसे जैसे कार्य बढने लगा- संघ शाखाओं की संख्या भी बढ़ने लगी। अनेक उपशाखाएं भी प्रारंभ हुई । व्यवस्था की दृष्टी से प्रत्येक उपशाखा में कार्यवाह व मुख्यशिक्षक की योजना की जाती। ऐसे कुछ कार्यकर्ता कर्तृत्ववान और अच्छे स्वयंसेवक ऐसे सद्गुणी कार्यकर्ता की ओर आसानी से आकर्षित होते थे । यही कार्यकर्ता अधिकारी हमारे लिये आदर्श है, ऐसी सुप्त भावना उनके मन कें भी उत्पन्न होना अस्वाभाविक नहीं था; किंतु क्या यह उचित है? यह प्रश्न कुछ स्वयंसेवकों के मन में उठा। स्वयंसेवकों से नित्य निकट सम्पर्क होने के कारण डॉक्टरजी को भी इसकी भनक मिली। अनौपचारिक वार्तालाप में यह विचार प्रकट होने लगा।

यह बात स्वीकार करते हुए भी कि अपना यह स्वर्णगैरिक भगवा ध्वज ही हमारा गुरू और आदर्श है, यदि कोई जीवित गुणसम्पन्न, कर्तृत्ववान व्यक्ति आदर्श के रूप में सामने हो तो क्या किशोर व छात्र स्वयंसेवकों को उसके अनुसार अपना जीवन बनाना आसान नहीं होगा? फिर, यह भी मान लिया तो ऐसा आदर्श कार्यकर्ता कैसे खोजा जाए? यह प्रश्न बाकी रह जाता है। पूर्णतया निर्दोष तो संभवतया कोई नहीं होगा। किसी उत्तम स्वयंसेवक के केवल सद्गुणों के आधार पर ही उसे आदर्श मानना क्या ठीक रहेगा? यदि इस ढंग से सोचा गया तो शायद प्रत्येक स्वयंसेवक को अपना अलग आदर्श स्वीकार करना होगा। किसी स्वयंसेवक द्वारा स्वीकृत आदर्श दूसरे स्वयंसेवक द्वारा नकारे जाने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता । बजरंग बली हनुमान आदर्श स्वयंसेवक हैं। शाखा में प्रार्थना करते समय अपने जीवन में शील आदि गुणों का विकास हो, इस हेतु हम हनुमानजी से ही विनंती करते हैं। इस प्रकार डॉक्टरजी के साथ अनौपचारिक वार्तालापों में स्वयंसेवक अपने मन में उठने वाले प्रश्न और विचार प्रकट करते थे। सभी स्वयंसेवकों के लिये एक ही व्यक्ति आदर्श रहे, यह मानते हुए भी ऐसा व्यक्ति कौन हो सकता है, इसका निर्णय नहीं हो पा रहा था | एक स्वयंसेवक ने कहा, पू. डॉक्टर हेडगेवार ही हमारे आदर्श हैं। स्वयं के नाम का इस प्रकार भाव पूर्ण शब्दों में उल्लेख होते ही डॉक्टरजी ने कहा, बस, बहुत चर्चा ही चुकी - हमें इस सम्बन्ध में आगे और भी चिंतन करना होगा - उसे हम आराम से करेंगे - जल्दी किस बात की है ?

दूसरे दिन पुनः इस विचार को गति देने के लिये डॉक्टरजी ने कहा कोई भी जीवित व्यक्ति आज कितना ही सद्गुण सम्पन्न और कर्तृत्ववान क्यों न हो, उसका जीवन अभी पूर्ण नहीं हुआ है । मानलो, यदि ऐसे व्यक्ति के जीवन में आगे चलकर कोई विकृति उत्पन्न हो जाए, उस व्यक्ति के बारे में आज तक अज्ञात किसी अवगुण या दोष का पता चले तो उस कार्यकर्ता को आदर्श मानने वाले स्वयंसेवक की भावनाओं को कितना आघात पहुंचेगा और तब संघ पर से भी उसका विश्वास ढहने लगेगा । व्यक्ति को स्खलनशील माना गया है। इसलिये किसी भी जीवित व्यक्ति को अपना आदर्श मानना उचित नहीं होगा। हनुमानजी, श्री रामचंद्र, श्रीकृष्ण तो सदैव हमारे आदर्श हैं - वे भी इसलिये कि उन्होने अपने जीवन में उद्भुत कार्य किये- वे तो साक्षात ईश्वर के अवतार हैं- उनके लिये कोई भी कार्य असंभव नहीं था। मनुष्य के रूप में ‘मानव-लीला' करने के लिये ही परमेश्वर ने उनके रूप में जन्म लिया था । वैसा जीवन बनाने की कल्पना भी नहीं की जा सकती, क्योंकि हम उन्हे परमेश्वरस्वरूप ही मानते हैं | अपने जीवन में उनका आदर्श कैसे स्वीकार किया जाए यह विचार अपने मन में उठता है । इसलिये अपने निकट भूतकाल में हुए किसी श्रेष्ठ व्यक्ति का आदर्श के रूप में हमें विचार करना चाहिये । ऐसे महान व्यक्ति का पूर्ण विकसित जीवन-पुष्प अपने परिचय का होने के कारण, वह जीवन हमारे सामने आदर्श के रूप में रह सकता है। ऐसे ऐतिहासिक श्रेष्ठ पुरूष का विचार करते समय हमें सहज ही छत्रपति शिवाजी महाराज का स्मरण हो आता है। उनके जीवन का प्रत्येक व्यवहार हमारे लिये आदर्श है। इस कारण हरेक स्वयंसेवक को छत्रपति शिवाजी महाराज का आदर्श ही अपने सामने रखना चाहिये। समर्थ रामदास स्वामी ने संभाजी के नाम प्रेषित पत्र में उन्हें अपने पिता स्वरूप जीवन जीने का परामर्श दिया था जिन शब्दों में समर्थ रामदास स्वामी ने छत्रपति शिवाजी के प्रति अपनी भावनाएं व्यक्त कीं, उनसे हम सभी परिचित हैं। वे शब्द इस प्रकार के थे -

"शिवरायाचे कैसे बोलणे ।

शिवरायाचे कैसे चालणे ।

शिवरायाची सलगी देणे । कैसे असे ॥

शिवरायाचा कैसा प्रताप ।

शिवरायाचा कैसा साक्षेप ।

...शिवरायास आठवावे ।

जीवित तृणवत मानावे ॥ 

डॉक्टरजी के उक्त कथन से स्वयंसेवकों का पूर्ण समाधान हुआ । इस सामूहिक चिंतन से हमारे मन में एक विचार उठता है। पू. डॉक्टरजी ने अपने जीवन का प्रत्येक क्षण संघकार्य में लगाया । अन्य किसी बात का, अपने व्यक्तिगत जीवन के बारे में भी कभी कोई विचार नहीं किया। १९२५ के पूर्व केवल समाज कार्य का ही विचार किया और १९२५ के बाद केवल संघ कार्य की चिंता में ही वे मग्न रहे। स्वयंसेवकों की दृष्टि में तो प्रारंभ से ही वे मर्यादा पुरूषोत्तम स्वयंसेवक तथा अपने आदर्श रहे हैं । किन्तु इसके बावजूद, ऐसा दिखाई देता है कि वे अपने जीते जी इस बारे में निरंतर सतर्क रहते कि कोई स्वयंसेवक उन्हे आदर्श माननेका विचार कभी भी न करे ।

आज अनेक सार्वजनिक कार्य किसी व्यक्ति के नाम पर चलते हुए हम देखते हैं। ऐसे कार्य कुछ काल तक चलते हैं। ऐसे व्यक्ति केन्द्रीत कार्य, उस व्यक्ति के निधन होते ही बंद हो जाते हैं, या प्रभावहीन हो जाते हैं। इसलिये प्रारंभ से ही डॉक्टरजी ने इस बात की चिंता की कि कोई भी जीवित व्यक्ति संघकार्य का केन्द्र बिंदु बनने न पाये, जिनका जीवन पुष्प पूर्णतया विकसित हो चुका है, ऐसा ही व्यक्ति जिसके जीवन के सभी पहलूओं से हम परिचित हैं, ऐसा महान व्यक्ति ही हमारा सच्चा आदर्श हैं। जीवन की यह व्यवहार्य-दृष्टि स्वयंसेवकों के हृदय में स्थिर हो सके, इसका उन्होने कितनी दूरदृष्टि से विचार किया था, यह जानकर आज भी हम सभी आश्चर्य चकित रह जाते हैं। 

  - संघ कार्यपद्धति का विकास

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