किशोर युवकों से संघ कार्य का प्रारंभ


किशोर युवकों से संघ कार्य का प्रारंभ

१९२५ में जब संघ का कार्य प्रारंभ हुआ, तब डॉक्टरजी की आयु ३५ वर्ष की थी । तब तक उन्होने तत्कालीन स्वातंत्र्य प्राप्ति हेतु चल रहे सभी आंदोलनों और कार्यों में जिम्मेदारी की भावना से कार्य किया। संघ का कार्य प्रारंभ करने के लिये उन्होंने १२-१४ वर्षों की आयुवाले कुछ किशोर स्वयंसेवकों को साथ में लेकर नागपुर के साळूबाई मोहिते के जर्जर बाडे का मैदान साफ करके, कबड्डी जैसे भारतीय खेल खेलना आरंभ किया। ऊपरी तौर पर देखा जाये तो यह एक प्रकार का विरोधाभास ही प्रतीत होता है। उनके अनेक मित्रों ने इस पर आश्चर्य व्यक्त करते हुये कहा भी था डॉक्टर हेडगेवार ने आसेतु हिमाचल फैले इस विशाल हिन्दुसमाज को राष्ट्रीयता के रंग में रंगकर सुसंगठित करने का प्रयास सफल सिद्ध करके दिखाने के उदात्त और भव्य कार्य का आरंभ माध्यमिक और उच्च माध्यमिक शालेय छात्रों के साथ कबड्डी खेल कर किया। 

डॉक्टरजी का मित्र परिवार काफी बड़ा था। फिर भी उन्होंने इन मित्रों को एकत्र कर कोई सभा-सम्मेलनों का आयोजन नहीं किया । सार्वजनिक अथवा किसी निजी स्थान पर अपने चहेतों की सभा लेकर, भाषण आदि देकर कोई प्रस्ताव आदि पारित करने के चक्कर में भी वे नहीं पडे । अंग्रेजों के विरूद्ध असंतोष भडकाने वाला भाषण देकर लोगों का उद्बोधन नहीं किया। 'भारत के उत्थान हेतु मैं एक नये कार्य का श्रीगणेश कर रहा हूं' - ऐसी कोई घोषणा भी नहीं की। समाचार पत्रों में लेख आदि लिखकर अथवा जाहिर भाषण में संघ कार्य के विचार और कार्य-शैली की कोई संकल्पना (Blue-print) भी प्रकट नहीं की। ये सारी बातें तत्कालीन प्रचलित पद्धति के अनुसार न करते हुए केवल २०-२५ किशोर स्वयंसेवकों को साथ लेकर कबड्डी जैसे देशी खेल खेलने का कार्यक्रम शुरू किया। प्रारंभिक दिनों में इन स्वयंसेवकों के समक्ष भी भाषण आदि देकर संघ - विचारों का प्रतिपादन नहीं कियां । खेल समाप्त होने के बाद संघ । स्थान पर अथवा अन्य समय में अनौपचारिक रूप से इन किशोर स्वयंसेवकों के साथ वार्तालाप हुआ करता ।

कबड्डी जैसे खेलों से शाखा का कार्य प्रारंभ होने पर डॉक्टरजी के अनेक मित्रों ने उनसे पूछा कि आप सारे कामों से मुक्त होकर इन छोटे बच्चों के साथ कबड्डी खेलने में क्यों लगे हैं? डॉक्टरजी ने उनके साथ कभी वाद विवाद या बहस नहीं की। तर्क और बुद्धि का सहारा लेकर उन्हें संघ कार्य का महत्व समझाने का प्रयास भी नहीं किया। तब तक किये गये सारे सामाजिक कार्यों से मुक्त होकर वे मोहिते बाड़े में लगने वाली सायं शाखा में किशोर स्वयंसेवकों के साथ तन्मय होकर खेलकूद में शामिल होने लगे। शाखा के कार्यक्रमों का ठीक ढंग से आयोजन करने, सारे कार्यक्रम अच्छे ढंग से बिना किसी भूल के सम्पन्न हों, इसके लिये एकाग्र चित्त से वे संघ कार्य में जुट गये। नये शुरू किये गये इस कार्य का नाम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है, यह बात भी प्रारंभिक दिनों में उन्होंने स्वयंसेवकों से नहीं कही। केवल तन्मयता से विविध खेलों के कार्यक्रमों में व रंग जाते और अपने साथ किशोर स्वयंसेवकों को भी रमाने का प्रयास करते और इस प्रकार संघ की शाखा शुरू हुई।

शाखा के साथ ही कार्यपद्धति का विकास भी प्रारंभ हुआ। स्वयंसेवकों के साथ परिचय होने के साथ ही अनौपचारिक वार्तालाप शुरू हो गया था। स्वयंसेवकों का नाम, शिक्षा, घर की स्थिति आदि के बारे में जानकारी प्राप्त कर लेने के बाद, यदि कोई स्वयंसेवक किसी दिन शाखा में नहीं आया तो अन्य किशोर स्वयंसेवकों को साथ लेकर डॉक्टरजी उसके घर जाते थे। इस प्रकार धीरे धीरे स्वयंसेवकों के माता-पिता और परिवारजनों के साथ भी परिचय होने लगा। डॉक्टरजी जैसा ज्येष्ट चरित्रवान कार्यकर्ता अपने बच्चे की पूछताछ करने, स्वास्थ्य संबंधी जानकारी प्राप्त करने बडी आस्था से अपने घर आता है, यह देखकर स्वयंसेवकों के घर के लोग भी प्रभावित होते। डॉक्टरजी के अपने घर आने से उन्हें बड़ी खुशी होती। कोई स्वयंसेवक यदि गंभीर रूप से बीमार होता तो डॉक्टरजी बड़े चिन्तित रहते - उस बीमार स्वयंसेवक के लिये अस्पताल से दवाई लाने, इलाज करने वाले डॉक्टरों से आस्था पूर्वक पूछताछ और विचार-विनिमय करने तथा आवश्यक हुआ तो बीमार स्वयंसेवक की सेवासुश्रुषा के लिये रात भर जागरण करने के लिये स्वयंसेवकों को उसके पास भेजने की व्यवस्था की जाती । इस प्रकार के व्यवहार से स्वयंसेवकों में परस्पर मैत्री पूर्ण संम्बन्ध अधिक मजबूत होने लगे। साथ ही प्रत्येक स्वयंसेवक के विचारों और भावनाओं का भी डॉक्टरजी को परिचय होने लगा। स्वयंसेवकों के सुखदुःखों में समरस होने की प्रवृत्ति बढने लगी | स्वयंसेवकों में सगे भाई से भी अधिक आत्मीयता के परस्पर सम्बन्ध बनने लगे। परस्पर हृदयस्थ विचारों से परिचित होकर निरपेक्ष स्नेह से मित्रता कैसी प्रस्थापित की जाए, नये नये विश्वास पात्र मित्र कैसे बनाये जांय आदि बातों के सम्बन्ध में डॉक्टरजी ने अपने प्रत्यक्ष व्यवहार से स्वयंसेवकों को संस्कारित किया । स्वयंसेवकों के घनिष्ठ मित्रों का यह परिवार धीरे धीरे बढ़ने लगा। एक दूसरे के साथ आत्मीयता से जुड़े स्वयंसेवकों का यह परिवार और उस परिवार के मुखिया के रूप में डॉक्टरजी, इस तरह संघ का स्वरूप धीरे धीरे विकसित होने लगा। सार्वजनिक क्षेत्र में कार्य करने का व्यापक अनुभव डॉक्टरजी को प्राप्त था। इसलिये डॉक्टरजी का स्वयंसेवकों के साथ हंसना-खेलना-बोलना आदि सभी बड़े अनौचारिक ढंग से चलता। ये अनौपचारिक बैठकें उनके घर में ही होती। इन बैठकों में होनेवाले वार्तालापों में डॉक्टरजी अनेक घटनाओं के सन्दर्भ में, बड़ी सहजता से अपने अनुभवों को सुनाते, ये अनुभव बडे बोधप्रद होते। साथ में हंसी-मजाक और दिल्लगी का दौर भी चलता। इसलिये ये बैठकें कभी कभी घंटों चलती रहती- सभी स्वयंसेवक उसमें इतने रम जाते कि समय का किसी को ध्यान नहीं रहता।

संघके कार्य में बैठक शब्द एक नये अर्थ में स्वयंसेवकों में प्रचलित हुआ । अनौपचारिक वार्तालाप और हास्य-विनोद से परस्पर मनों को जोडनेवाली एक नयी कार्यशैली विकसित हुई । इन बैठकों में डॉक्टरजी अनेक घटनाओं के सन्दर्भ में अपने अनुभवों के साथ बडे रोचक ढंग से जानकारी प्रस्तुत करते - इसमें विनोद के साथ ही अत्यंत सरल शब्दों में राष्ट्रीय भावना के लिये पोषक मार्गदर्शन भी होता| तरह तरह के मानवी स्वभावों, अंतर्मन की भावना को प्रकट करने वाले रोचक उद्गारों, शब्दप्रयोगों को लेकर प्रचलित समाज की स्थिती को समझाने का प्रयास भी होता। यह सब हंसी-विनोद के साथ चलता और इसलिये इन बैठकों के प्रति स्वयंसेवकों का आकर्षण बढने लगा। डॉक्टरजी के निवासस्थान पर नित्य अधिकाधिक संख्या में ये बैठकें रात्रिके ९ से १२ बजे तक चलती रहती।

डॉक्टरजी ने इन बैठकों में स्वयंसेवकों को खुले दिल से अपनी बातें कहने की आदत भी डाली । वार्तालाप का सूत्र टूटने न पाये, स्वयंसेवक अपना विचार व्यक्त करते समय भटकने न लगे- विचार प्रकटन में सुसंगति बनी रहे इसकी चिंता डॉक्टरजी बडी कुशलता से करते । इन बैठकों में स्वयंसेवकों के गुण-अवगुणों का निरीक्षण भी होता। बैठक में कौन कौन उपस्थित थे- किसने कौनसी शंका व्यक्त की- उसपर कौन क्या क्या बोले आदि सारे वार्तालाप की बारीकियों को ध्यान में रखा जाता - इससे हरेक के स्वभाव, बोलने की शैली, विषय प्रतिपादन करने की कुशलता, उसके कर्तृत्व और उसकी गुणसंपदा बढाने के लिये क्या क्या आवश्यक है - आदि बातों का निदान भी होने लगा ।

स्वयंसेवकों और समाज के अन्य बांधवों के साथ प्रेम से, सीधे सरल शब्दों में किस तरह बातचीत की जाए, अपने कार्य के प्रति उसकी सहानुभूति और अनुकूलता अर्जित करने के लिये मित्रता कैसे सुदृढ की जाए, सामूहिक चिंतन और विचारविनिमय में अपने विचार किस तरह व्यक्त किये जांय- ऐसी अनेक छोटी-छोटी प्रतीत होनेवाली किंतु संघ कार्य को मजबूती से खड़ा करने के लिये अत्यावश्यक बातों का डॉक्टरजी बडा ध्यान रखते । जहां आवश्यक हो, वहीं वे मार्गदर्शन करते। अपने मित्रों और सहयोगियों को परस्पर अनुकूल बनाने में उपयोगी सिद्ध हो सके ऐसी पद्धतिसे बैठकों में अथवा परस्पर वार्तालाप में बोलने की आदत डॉक्टरजी ने स्वयंसेवकों में डाली । प्रत्येक स्वयंसेवक के मन में आस्थापूर्वक अपने राष्ट्र की उन्नति के लिये संघकार्य करने की इच्छा होती है। हरेक की बोल-चाल की शैली में भिन्नता स्वाभाविक है - यह जानते हुए प्रत्येक स्वयंसेवक के विचारों का यथोचित आदर करते हुए, उनके विचारों को सुनने के बाद सम्पूर्ण समाज और देश के हित में वस्तुनिष्ठ विचारों का प्रतिपादन और अंत में निष्कर्ष के रूप में सर्वानुमति से सबके सामने उल्लेख करना और जो दोष दिखाई दें उनका उल्लेख सबके सामने न करते हुए संम्बन्धित व्यक्ति से अकेले में बातचीत कर उस दोष को दूर करने का प्रयास करना - धीरे धीरे यह आदत सभी स्वयंसेवकों को हो गई। हरेक स्वयंसेवक का, स्वभाव वैचित्र्य के कारण अभिव्यक्ति का ढंग भी अलग होता है - यह होते हुए भी उन सभी में वैचारिक और व्यावहारिक सामंजस्य प्रस्थापित करने की पद्धति से डॉक्टरजी ने हरेक स्वयंसेवक के जीवन को एक नयी दिशा दी । स्वयंसेवकों में भी सामंजस्य की यह आदत विकसित होती गयी । परिणाम स्वरूप नये नये मित्रों से पहिचान, उनके साथ घनिष्ठता में वृद्धि, उनके साथ सम्पर्क से संघ के विचारों और कार्य के प्रति सहानुभूति और निकटता बढाकर उन्हे संघ की शाखा में लाने का प्रयास होने लगा । प्रारंभ में, प्रत्येक स्वयंसेवक के साथ डॉक्टरजी का सम्पर्क बना रहा । किन्तु जैसे जैसे कार्य बढ़ता गया वैसे वैसे केवल प्रमुख कार्यकर्ताओं से नित्य का संबंध और व्यक्तिगत बातचीत में मार्गदर्शन करना ही डॉक्टरजी के लिये संभव हो पाया ।

संघ कार्य प्रारंभ होने पर, हरेक बैठक में डॉक्टरजी स्वयं सभी कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर संघ कार्य से सम्बन्धित सभी विषयों का चिंतन और विचार-विनिमय किया करते । उनके मन में संघ कार्य की पूर्ण रूपरेखा और कार्य विस्तार की पूर्ण संकल्पना स्पष्ट रूप में थी। किंतु सारे कार्यकर्ता स्वयंसेवक तो किशोर-युवक थे । उनकी उम्र भी उस समय १२-१४ वर्षों की रही होगी। फिर भी कार्य के सम्बन्ध में विचार-विनिमय व सामूहिक चिंतन से सर्वसम्मत निर्णय लेने की कार्य पद्धति इन कार्यकर्ताओं के बैठक में ही विकसित और रूढ हुई। संबंधित सभी कार्यकर्ताओं के साथ वार्तालाप होने के बाद ही सर्वसम्मत निर्णय लेना यह संघ की कार्य पद्धति का अंग बना । आदेश देनेवाला नेता एक और बाकी सारे अनुयायी अथवा विचार - चिंतननिर्णय करने वाला केवल एक नेता और बाकी सारे उसकी आज्ञा का पालन करनेवाले - इस प्रकार की कार्य पद्धति डॉक्टरजी त्याज्य मानते थे। सबके साथ खुले वातावरण में मुक्त विचार-विमर्श कर, सबके विचारों का यथोचित आदर करते हुए वस्तुनिष्ठ और कार्य को प्रमुखता देकर 'पंच परमेश्वर' की भावना से बैठक में लिये गये निर्णय को शिरोधार्य मानकर सभी ने मनःपूर्वक कार्य करने की पद्धति संघ में विकसित हुई। इसी में से, हरेक की थोडी बहुत वैचारिक मत- भिन्नता के बावजूद, सबके हृदयों को एक साथ जोडने - एक दिल से कार्य करने की तथा राष्ट्रीयता की भावना से ओतप्रोत संघशक्ति निर्माण करने वाला राजमार्ग प्रशस्त होता गया ।

 - संघ की कार्यपद्धति का विकास

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